नयी-नयी चाहत की दो दिलों पे जब बरसात होती है
होंठों पे एक ख़ामोशी मगर निग़ाहों से बात होती है-
Poet | Filmmaker | Editor
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एक चाँदनी पड़ती रही रात-भर मेरे चेहरे पर, 'सतलुज'
कोई चाँद बैठा था खिड़की पे मेरे ख़्वाबों से उतर कर-
तेरे होंठ एक पुल की तरह है
जो मुझे तुझ तक ले जाती है
मैं इस पार से देखता हूँ
तू उस पार बुला लेती है
जब तू मुस्कुराती है...
जब तू मुस्कुराती है...-
ज़रूरी नहीं हम जो कल थे आज भी वही हों
वक़्त के ज़ख्मों ने हमें बहुत कुछ सीखा दिया-
गिरी है अश्क़ की बूँद, आँखों से फिसल कर
कागज़ पर उतरे हैं, मेरे सारे दर्द पिघल कर
न जाने कब से तन्हा, डाल पर बैठा है परिंदा
शायद उड़ना भूल गया है, क़ैद से निकल कर
चैन आने न दिया कभी, दर्द-ए-जुदाई ने हमें
ये लहरें चाँद बुलाती रहीं, रात-भर उछल कर
न समझेगी तेरे प्यार को, ये मतलबी दुनिया
अपने जज़्बात ख़र्च करना, ज़रा सँभल कर-
क़ैद हो गये अपने ही घर में एक उमर के लिये
अभी तो निकले ही थे मुसाफ़िर सफ़र के लिये-
अचानक एक रोज़ दुनिया में क़यामत आयी
इन हाथों की लकीरें जब हमनें बदलनी चाही-
मैं उठना चाहता हूँ
इस सपने से...
इस भयावह सपने से
जहाँ कुछ दिखायी नहीं देता
आगे क्या है, कौन है
क्यों सब कुछ मौन है
क्यों ठहरा है दरिया का जल यहाँ
क्यों रुका है मेरा बढ़ता कल यहाँ
क्यों खड़ा है हर फ़ैसला कटघरे में
क्यों क़ैद हूँ मैं वक़्त के पिंजरे में
क्यों पंखों में परवाज़ नहीं
क्यों लबों पे अल्फ़ाज़ नहीं
क्यों अंधेरा बढ़ाता है अपना हाथ यहाँ
क्यों नहीं है कोई और अपने साथ यहाँ
क्यों मैं उठ नहीं पा रहा
आख़िर क्यों?
ये सपना देखे जा रहा
कौन उठायेगा?
कौन बचाएगा?
शायद... एक उम्मीद!
कि ये सपना टूट जायेगा कल-
जान है बाक़ी अभी, इम्तिहान है बाक़ी
इन सपनों की आख़िरी उड़ान है बाक़ी
एक दिन तो मिलना है हमको भी मिट्टी में
मगर छूने को अभी तो आसमान है बाक़ी
रोज़ पूछते हैं हम चाँद से मंज़िल का पता
वो बताये ज़रा और कितने चट्टान है बाक़ी
रूठ कर मत बैठ जाना तुम कहीं 'सतलुज'
लिखने को ज़िंदगी की पूरी दास्तान है बाक़ी-