हिंदी को क्यों समझें हम कमजोर..
यह तो हे सभी भाषाओं की सिरमौर..-
दृग में बसे जैसे दृश्यांकन
मन की कोरी भूमि के पृष्टांकन
सरल से जीवन के सारांश हो तुम
या फिर कहूँ तुम्हें मनहर
शब्दकोश से सर्वश्रेष्ठ काव्यांश हो तुम
अधिक तो क्या करूं चित्रांकन
प्राणों से प्रिय प्रियांश हो
मम हृदय के हृदांश हो तुम
जीवन के कोरे केनवास पर
सतरंगी बौछार की मधुर आस हो
कुछ अधूरें सपनों का आभास हो तुम
जन्मों का संचित प्रकाश हो
अधिक तो ओर क्या लिखूं
मेरे प्यारे शिवांश हो तुम..-
मुग्ध अव्यक्त अप्राप्त
मगर एक अनन्य अनंत ऐहसास तेरा
धरा से गगन हो रहा है
भक्त विरक्त अभिव्यक्त
सदैव स्मृतियों में अमिट ऐहसास तेरा
पतित से पावन हो रहा है
चल अचल अविरल
पंचत्तत्वों से परे ऐहसास तेरा
जड़ से चेतन हो रहा है
जीव जगत सर्वत्र
हर जगह सिर्फ आभास तेरा
मुझ से मैं कहीं खो रहा है
सुविधा दुविधा प्रज्ञा
जीवन की हर विधा में ऐहसास तेरा
हृदय से विधाता हो रहा है
सरल सहज महज
शालिनता का प्रकाश तेरा
शिव से शिवत्व हो रहा है
मुग्ध अव्यक्त अप्राप्त
मगर एक अनन्य अनंत ऐहसास तेरा
धरा से गगन हो रहा है-
आसान नहीं है
तपना पड़ता है
खुद से लड़
नित खफ़ना पड़ता है
तब जाकर
कोई कुशल प्रखर प्रवीण
प्रबुद्ध व बिरला ही
बुद्ध कहलाता है-
प्रेम तो सिर्फ मन से है
तन का तो क्या है
हाड़ मास की यह नश्वर देह
चाहे दुषित हो या मिट जाए
पर हे परमेश्वर
उनके मन को सदा
सात्विक व निश्छल रखना
युगों युगों तक
चाहे मैं रहूँ या ना रहूँ
पर हे महादेव
मेरे मानस प्रेम को सदा
पावन व पवित्र रखना..-
जब साधा सरल था
तब लोगों को बहुत भला लगता था
जब थोड़ी समझदारी आई
पहले जैसे इस्तेमाल होने में
उनकों कुछ कठिनाई हुई
तो अब मैं उनके लिए बेहद बुरा हो गया
वास्तव में कितना सरल है आज मुखौटों से
लोगों की नज़र में भला बनना
पर उससे भी ज्यादा कठिन है
वास्तविक सपाटबयानी से आइना दिखाना
पर याद रहे भला बनकर भी
जन मानस पटल पर ऐसा भला
सदैव विचलित खड़ा व औंधे मुंह पडा़ है
तो वहीं बुरा संघर्ष सहर्ष स्वीकारता हुआ
खूब लडा़ व नित आगे बढा है-
मेरी कोरी पृष्ठभूमि पर
सतरंगी बौछार हो तुम
जीवन के अधूरें अनकहे रंगमंच पर
पवित्र संगीत की बहार हो तुम-
कब तक विरोध के काले झंडे दिखाते रहेंगे
घायल होती थाती पर
करते रहों जाति धर्म
नासूर बनतीं बर्बादी पर
निर्दोष निहत्थे कब तक सहेंगे
गोली आखिर छाती पर
निर्लज्ज कायर आतंक
पूछकर मारें जो सिर्फ धर्म
उनके लिए शांति के कबूतर कब तक उडाएंगे
मानवाधिकार हो मानव के
समझे ना जो इंसान का मर्म
वो इस जहाँ में सिर्फ दानव है
मासूम खंजर पीठ पर
सहेंगे कब तक हरबार
उनकी भाषा में उनकों जन्नत कब दिखलाएगें
धर्म तो मेरा हिंदुस्तान है
शौर्य साहस वीरता
फिर भी देखना है तो
नापाक कायरता छोड़ कर
सामने से वार कर
47 से कारगिल तक का मंजर फिर से दिखलाएगें..-
जुड़ ही जाता हूँ
किसी ना किसी रूप में उससे
निहित है सकल
जीवन का सार व
भावों का सागर जिससे
यादों की बारात लेकर
कुछ अनकही बातों की यादें संजोकर
नाचतें हुए स्मृतियाँ भी
उसके अभावों में जैसे
मन के मधुर पथ पर
मंगल गीत गाती हो
सकल तारामंडल भी
दमकते हुए आलोक से
उसकी राह दिखलाता है
जगत उस अलौकिक प्रेम को
क्या कर पहचानेगा
जो स्वंय शिव व शिवत्व कहलाता है
जुड़ ही जाता हूँ
किसी ना किसी रूप में उससे
निहित है सकल
जीवन का सार व
भावों का सागर जिससे-
पत्नी क्या है
ये धरा वो गगन
मही पर संघर्ष व महानता की हर डगर
महकता है जिससे घर आंगन उपवन
जिससे संचालित हो सारा मानस सदन
ऐसी भार्या को सादर नमन
पर ठहरों जरा
अति उत्साह में आने से पहले
पूरी बात सुनो जरा
ये तो महिनों के कुछ ही दिन लगता है
हवा का रुख तो हर क्षण बदला है
बाकि दिनों तो पति
सामने उसके बेबस व बेचारा ही लगता है
उसकी कुटिल हंसी में
अशांति के छिपे हुए बवंडर
वास्तविक धरातल से बेखबर
दांपत्य जीवन में दूसरा तो बेहद सुखी है
ऐसा सबको सिर्फ लगता है
वक्त बेवक्त श्रीमती जी के कुतर्क
प्रकट होतें है जब तब
सारा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है
पर क्या करे भाई साहब
अब पति बेचारा धरा की सबसे ज्वलंत समस्या से
अकेला जूझने के सिवा और कर भी क्या सकता है..-