मिलन की आरज़ू लिए दिल
बार-बार दर पर दस्तक देते हैं-
बना कर अल्फाज़
काग़ज़ पर उतार दूँ...
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अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा थी बचपन में पायी
कोई न समझे बुजदिल उसने,तलवार भी चलाई
भिक्षुक बन अभिमान को जीवन से दे दी बिदाई
सिद्धार्थ से बुद्ध बन,उसने शांति की राह दिखाई
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कहा जाता कि, सब कुछ तो पैसा नही
पर ये उनके लिए ,जिसके पास पैसा है
तन की भूख हो,चाहे हो तन का उपचार
बिना पैसा के, इंसान हो जाता है लाचार
माना इंसान में, पैसा पैदा करता विकार
ग़र पास पैसा,अव्यावहार बने शिष्टाचार
कोशिकाओं में है ज्यों जरुरी रक्त संचार
पैसा बना "सकुम"अब जीने का आधार-
जीने वाले जाने कैसे, जल्दी-जल्दी में ज़िंदगी जीते हैं
हम तो पानी का हर इक घूंट भी,रुक-रुककर पीते हैं-
रुह की धूप जब किसी जलाती है
जलने वाली रुह तो, जलती ही है
देखने वाली रुह भी कांप जाती है-
किसी को मंजिल तक पहुँचा न पायें
ऐसी राहों पर कभी हम, क्यों जायें
बहुत बार, रास्ते बदल के देखे हमनें
बिना उद्देश्य के चलना नही मन भाये
लक्ष्य को पाये बिना, रुके नही कदम
चलते रहे जब तक नही हो गए बेदम
रास्ते न बदलो, बदल दो अपने कर्म
इंसानियत ही"सकुम"इंसान का धर्म-
हमको कभी गरीब भी बना सके
गरीबी में भी नही था इतना दम
दौलत के मामले में फकीर सही
यारो,ग़मों के तो बादशाह हैं हम
हँस-हँस कर, सदा ही सहते रहे
ज़माने ने करे चाहे जो भी सितम
फर्क न पड़ता अब "सकुम" को
दोनो समान हैं ख़ुशी हों या ग़म-
आँखे, रुक कर ही सही पर खुल जाती हैं
साँसे भी अभी थमी नही, आ ही जातीं हैं
पलभर भी जीने की तमन्ना चाहे न बची हैं
पर,जिंदा तो हो, यही ज़िंदगी कहलाती है
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