Satish Kalundia   (सतीशK)
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Joined 19 September 2017


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27 MAR AT 22:19

रात तेरे सीने से लग कट जाएगी
धड़कता रहे तू दिल की तरह ही

सलवटें बिस्तर की हो या मन की
पलता रहे तू खाहिश की तरह ही

आँखों ही आँखों में बातें करते रहना
बोलता रहे तू ख़ामोशी की तरह ही

तेरी ज़ुल्फ़ों को कांधे से हटाकर
बरसता रहूँ मैं सावन की तरह ही

मोहब्बत की पाकीजगी बयां नहीं होती
जलता  रहे तू रूह की तरह ही

पढ़ती रहा कर मुझे रात दिन
लिखता रहूँ मैं तूझे इश़्क की तरह ही

एक दिन ये साँसे थम जाएंगी
दोनों मगर अमर रहें धड़कन की तरह ही।

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22 MAR AT 22:17

दो ख्वाब थे
दोनों बेताब थे
मिलने की आस में
अधूरे रह गए दोनों,

दो रास्ते थे
एक मंज़िल थी
सफर की शुरुआत में
अधूरे रह गए दोनों,

दो किताब थे
दो कहानी थी
पहले ही अध्याय में
अधूरे रह गए दोनों,

दो ज़िन्दगी थी
दो साँसें थी
अपनी अपनी जगह में
अधूरे रह गए दोनों।

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21 MAR AT 13:15

ज़िन्दगी पेड़ जैसी है
तुम उसके मौसम जैसे हो

ज़िन्दगी पेड़ जैसी है
तुम उसपर कोयल जैसे हो

ज़िन्दगी पेड़ जैसी है
तुम उसके आंगन जैसे हो

ज़िन्दगी पेड़ जैसी है
तुम उसपर सूरज जैसे हो

ज़िन्दगी पेड़ जैसी है
तुम उसके पालनहार जैसे हो।

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14 MAR AT 22:49

ज़िन्दगी से इश्क़ कीजिए
और लोगों से बेवफाई

तन्हाई से दोस्ती कीजिए
और ग़मों से रुसवाई।

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14 MAR AT 22:38

हम अक्सर
एक लेखा जोखा तैयार करते हैं
खोने पाने की,
हँसने रोने की,

हम आंकने लगते हैं
दूसरों का व्यवहार
अपना व्यापार,

कुछ गुणा भाग चरित्रों की
कुछ जोड़ घटाव अपने कर्मों की,

इस हिसाब किताब में
हम ये भूल जाते हैं इस जग
हमारा समय अणु से भी कम है।

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13 MAR AT 23:08

मैं जब जब संभल कर चलता रहा
मैं पग पग ठोकर खाता रहा

मैं जब जब इस्तेमाल होता रहा
मैं तब तब अच्छा लगता रहा

मैं जब जब किसी के लिए खड़ा रहा
मैं पल पल उसके लिए तड़पता रहा

मैं जब जब ग़लतियाँ दोहराता रहा
मैं तब तब खुद को कोसता रहा

मैं जब जब दिल की सुनता रहा
मैं हर बार मुँह की खाता रहा।

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13 MAR AT 22:49

सारे लफ्ज
सारी कविताऐं
इक्ट्ठा हो आये,

इक ख़ामोशी की दिवार
गिराने...।

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11 MAR AT 23:28

मैं अपनी रातें
गठरी में उठाये लिये फिरता हूँ

इस आस में कि
कोई तो मिले जिसकी बाँहों में
सिमट सकूँ
दिल में पसर सकूँ।

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11 MAR AT 23:18

तुम्हारे हाथों में संभावनाऐं
पैरों में तकदीर है,

खुद का रंग खुद का कैनवास
खुद का तू ही तस्वीर है।

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11 MAR AT 23:05

दो चार किताबी बातें हैं
दो चार पुरानी रातें हैं

एक बिगड़ा हुआ तस्वीर है
दो चार बरसी बरसातें हैं

एक अधूरी शायरी है
दो चार मखमली मुलाकातें हैं

एक हकीकत सा सपना है
दो चार बेख्वाबी रातें हैं।

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