तुम, तुम, तुम और तुम भी...
तुम सब थे तो सही,
जब एक बेबस को गुनहेगर ठहराया गया था...
ये तो पुरानी बात है;
मैंने कुछ दिन पहले अपने हाथों से ही मिटाया था...
पर क्या करूं?
दिल का ताला फिर से खुला...
उसने तुम सबसे ये पुछने को बोला...
तुम, हां तुम...
जिसने ढकेल दिया था नरक में,
और नरक से भी बुरी हालत मैं...
वो आज सम्मान चाहता है मुझसे,
क्या पता; लड़ती हूं रोज़ खुद से,
मुंह पर हसी लाऊं कैसे;
जब मर रही हूं अन्दर से...
तुमको नहीं भूली में...
अंदर रोके ऊपर हंसने की ये बेतूकी
ढंग तभी तो मैंने सिखी थी,
जब आए थे तुम मिलने मुझसे;
तो हंसते हुए पाया था ना...
तब दिल मैं लगाये थे ताले ;
और "कैसे हो" पुछा था ना...
ये सब तो बस शुरुआत था, आगे के लिए सज्ज होना था...
अब कितना कुछ बाकि था, हमें दिल पे ताला लगाना था।।
-