एहसान ज़िन्दगी का यूँ इंसान पर ज़्यादा रहे
हर साल मुस्कुराहटों का दौर ही ज़्यादा रहे
आफ़त का वक़्त हो या कि दौर-ए-जश्न में
तारीख़ का एहसास कम जज़्बात का ज़्यादा रहे
-सरिता मलिक बेरवाल
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साहित्य न तो वर्तमान की कोई सूचना है, न ही इतिहास की कोई तथ्यात्मक घटना। साहित्य अनुभूति की एक ऐसी कलात्मक व काल्पनिक अभिव्यक्ति है, जो कभी ऐतिहासिक, कभी समसामयिक, तो कभी भविष्यसूचक प्रतीत होती है। साहित्य और राजनीति में यह अंतर बना रहना चाहिए कि साहित्य एक स्वतंत्र विचार है, जिसमें पक्ष या विपक्ष नहीं होता। तस्वीरें तो बदलती रहती हैं, साहित्य तो ऐसा फ्रेम है, जिसमें किसी भी कालखंड की, कोई भी तस्वीर सटीक लगे।
-सरिता मलिक बेरवाल-
क़िताब में इतिहास की,
क्रांति के मुकम्मल दस्तख़त रहो
ज़ुबाँ की ज़िद रहो,
कल की कश्मकश में ख़ामोश मत रहो
ज़िंदा हो जो तुम,
जंग-ए-ज़िन्दगी में सच के सारथी बनो
रहना है तो रहो दिलों में,
दुनिया में फिर रहो या मत रहो
-सरिता मलिक बेरवाल-
मैं बन जाऊँ वह दीपक
जो रोशन हो अंधेरों में
जो काली रात के भी बाद
शामिल हो सवेरों में
लुटाकर रोशनी अपनी
मुझे जग को जगाना है
जो जीवन ने दिया मुझको
मुझे वह ऋण चुकाना है
-सरिता मलिक बेरवाल
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मैं बन जाऊँ वह दीपक
जो रोशन हो अंधेरों में
जो काली रात के भी बाद
शामिल हो सवेरों में
लुटाकर रोशनी अपनी
मुझे जग को जगाना है
जो जीवन ने दिया मुझको
मुझे वह ऋण चुकाना है
-सरिता मलिक बेरवाल
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एक चिड़िया बन उड़ूँ भारत के आसमान में
खेत खलिहानों को देखूँ मेरी इस उड़ान में
मेघ बन बरसूं कभी जब सूखती हो ये धरा
लहलहाती फसल को बन हवा मैं बोलूं कान में
धान्य बन जाऊँ मैं जब भी भूख से तड़पे कोई
न्याय बन जाऊँ मैं जब अधिकार को हड़पे कोई
माँ भारती के हाथ में बन जाऊँ मैं कल की कलम
आज बनकर हर लूँ मैं जो कल के हों सदमे कोई
बन के कोयल गीत अपने देश के गाती रहूँ
फूलों की बन बगिया मैं हर चेहरे पे मुस्काती रहूँ
चाहती हूँ मैं बनूँ सिपाही की पत्नी का सिंदूर
बन तिरंगा देश का हरदम मैं लहराती रहूँ
-सरिता मलिक बेरवाल
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एक चिड़िया बन उड़ूँ भारत के आसमान में
खेत खलिहानों को देखूँ मेरी इस उड़ान में
मेघ बन बरसूं कभी जब सूखती हो ये धरा
लहलहाती फसल को बन हवा मैं बोलूं कान में
धान्य बन जाऊँ मैं जब भी भूख से तड़पे कोई
न्याय बन जाऊँ मैं जब अधिकार को हड़पे कोई
माँ भारती के हाथ में बन जाऊँ मैं कल की कलम
आज बनकर हर लूँ मैं जो कल के हों सदमे कोई
बन के कोयल गीत अपने देश के गाती रहूँ
फूलों की बन बगिया मैं हर चेहरे पे मुस्काती रहूँ
चाहती हूँ मैं बनूँ सिपाही की पत्नी का सिंदूर
बन तिरंगा देश का हरदम मैं लहराती रहूँ
-सरिता मलिक बेरवाल
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टकराते जब मज़बूत इरादे, पर्वत भी झुक जाते हैं
जान की बाज़ी लगती है, बाक़ी सब केवल बातें हैं
हर नौजवान जी उठता, देश पर मरने की तैयारी में
जब सुभाष से वीरपुरुष, हिंद को आवाज़ लगाते हैं
तुम हो ग़ुलाम जब तब हो क़ैद, जाति और धर्म के नामों में
इतिहास की स्याही चलती है, इंसान के अच्छे कामों में
है नाम लिखा जब सीने में, जन्मभूमि मेरे भारत का
देश के सच्चे सैनिक को, क्या दिलचस्पी ईनामों में
हे हिंद की सेना थको नहीं, तुमको मंज़िल तक जाना है
जब तक लाचारी ज़िंदा है, तब तक हर क़दम बढ़ाना है
हर मुँह में निवाला हो ये सपना, आज युवा इस भारत का
जागे सुभाष सोया सब में, तब मिलकर जश्न मनाना है
-सरिता मलिक बेरवाल-
मैं इस मिट्टी में उग आऊं तो पानी डाल देना तुम
मुझे धरती पे रहकर के यहीं विस्तार पाना है
जो उस ऊँचे गगन के पास जाएंगी मेरी बाँहें
तो भी अपनी जड़ों के साथ ही संसार पाना है
-सरिता मलिक बेरवाल
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सलामत है सफ़र की आरज़ू उनकी पनाहों में
बसती जान है जिनकी तुम्हारे दिल की राहों में
बड़े होकर भी बच्चे सी वही अल्हड़ अदा बनकर
बचपन अब भी जी उठता है फिर दादी की बाँहों में
-सरिता मलिक बेरवाल-