कि चल कोई कोई ग़ज़ल लिखूं जिंदगी तुझपे
और लिखूं कि किस हद तक तूने हमें बेज़ार किया
करूं हिसाब तेरे हर दर्द हर सितम का
और बताऊं तुझे कि तूने कैसे मौत को भी शर्मशार किया
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आंखों की दहलीज़ पे अटके आंसू
मुस्कुराहटों के पीछे छुपते आंसू
जिंदगी से बेज़ार मगर हारने को तैयार नहीं
दर्द की ज़िद है मगर नहीं बहते ये आंसू-
उखाड़़ दे, फेंक दें, जला दे मुझको
रौंद दे, तोड़ दे, मिटा दे मुझको
ऐ जिन्दगी कुछ और कोशिश कर मिटाने की मुझे
देख मैं अभी भी जिंदा हूं, खड़ी हूं
हिम्मत है तो आ...आ और हरा दे मुझको।।।
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पाकीज़गी की दरकार क्या है
वफ़ा अहद और मुहब्बत में ज्यादा अहम क्या है...
बावफा से बेवफा तक का सफर जो तय करता होगा
क्या होता होगा उसके सफर में... क्या खो जाती होगी पाकीज़गी उसकी, अगर हां तो फिर क्यूं उसकी आंखें आज भी शफ्फाक लगती हैं...
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हर इंसान स्वयं को शोषित साबित करने में व्यस्त है, व्यस्त हैं सबको समझाने में कि देखो इतने शोषण के बाद भी मैं कैसे जिंदा हूं, मेरी जीजिविषा कितनी मजबूत है, इंसानों की मानें तो उन पर संसार के हर सजीव - निर्जीव ने शोषण किया है, जैसे कि जीवन जिया नहीं बर्दाश्त किया जा रहा है, और सोचने की बात है, बर्दाश्त करने वाली चीज सुखमय कैसे हो सकती है...और इस पर भी सुख की अपेक्षा... क्या विडम्बना है।।
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विरोधाभास सा जीवन, सांसों की ताल में धड़कनें रुकने की चाहत
धडकनों की लय में सांसों के घुटने का एहसास
विचित्र सा जीवन
जीने से जान छुड़ाता जीवन।।।-
बेफजूल ख्वाहिशों का हुजूम हो तुम
ज्यादा इतराओ नहीं... जिंदगी...बहुत महरुम हो तुम
अजीब सी शक्ल लिए फिरती हो बदहवास सी
और कहती हो ...सुकून हो तुम-
अपने हिस्से की जंग लड़ रहें हैं
मैं जो लड़ रही हूं, क्या सब लड़ रहे हैं...-
सुनो थोड़ा दूर रहो कि ये दर्द पालना है मुझे
मेरे दर्द को यूं जा़या न करो
हां बेचैन होकर बुलाऊंगी तुम्हें
मुझे चैन देने मगर आया न करो...
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कोई तल्खियां बो रहा है
ज़हन में....
और मैं खुराक हो गई हूं
फूल फल रही हैं हर रोज़ बढ़ रही हैं
मजबूत बेल सी
वजूद से लिपट रही हैं
चाह कर भी काट नहीं पाती इन्हें
मेरी बेबसी पर हंस रही हैं...
ये तल्खियां....बड़ी बेबस कर रही हैं!!!
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