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कृष्ण कृष्ण कहे राधिका,
कहे ना जाओ कृष्ण छोड़ कर,
राधा जीवन है कृष्ण का,
तो राधा बिन कृष्ण कैसे रहे पाएंगे ?
कहे कृष्ण आंसू पोंछे राधिका,
यही दुनिया की रीत है,
जिनका भी प्रेम है राधा कृष्ण सा,
वो संग नहीं रहे पाएंगे.....
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पल पल पिघल रही सम्मा को अब बुझा रहा मैं...
पल पल पिघल रही सम्मा को अब बुझा रहा मैं,
आंखों से एक अधूरी नज़्म को गुनगुना रहा हूं मैं।
जिंदगी की कद्र तो कभी नही रही मुझे,
अब चंद सांसे थम कर मौत को चिदारहा हूं मैं।
क्यों चाहती हो मुझे मैं ताप हूं मैं आग हूं,
तुम रोशनी का पंजा हो मैं ढलता हुआ सूरज हूं।
पुलकित करे हृदय को वो मधुर सी रागिनी हो तुम,
मैं वेदना की बीणा पर सजाए रहता राग हूं।
तुम गीत लिखराही हो मुसकुराहते बिखर कर,
छलकते आसूंओं से एक गजल बनारहा हूं मैं।
तू यमुना सी पुनीत है तू गंगा सी पवित्र है,
वो दागे दार चांद के जैसा मेरा चरित्र है।
मर्यादा लाज सी तुझे सखी सहेलियां मिली,
कवि हृदय आवारा पन ही मेरा एक मित्र है।
सब त्याग कर रस्मो को सहेजती है तू ,
और सारे रीति रिवाजों को मितरहा हूं मैं।
हम हैं किनारे नदियां का संगम संजो ना पाएंगे,
बहेते रहेंगे सादियों तक पर एक ना हो पाएंगे।
राधा सी है छबि तेरी, मीरा सी है त्याग तुझ में,
तुम लाख पूजो हम तुम्हारे कृष्ण होना पाएंगे।
तुम किसी पावन हृदय में प्रेम की मूरत बनो,
बस यही अविलासा लिए प्रेम की परिभाषा लिए,
दर्द को भूलते हुए देख मुस्कुरा रहा मैं।
पल पल पिघल रही सम्मा को अब बुझा रहा मैं,
आंखों से एक अधूरी नज़्म को गुनगुना रहा हूं मैं।
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ना पेपर निकला हमारा ना मोहब्बत मुक्कमल हुई,
जिंदगी बस तेरे प्यार में डाल डाल हुई,
और इतनी चालाकी से अलग होने का बहाना बनाया तुमने,
ना कोई सौर सरब्बा हुआ ना कोई हलचल हुई।-
ମହାନିର୍ବାଣ
ମନେପଡେ ଆଜି କେତେ ଯୁଗ ତଳେ ହୋଇଥିଲା ଆମ ଦେଖା,
କେବେ ଜଳିଥିଲା ଭଲ ପାଇବାର ପ୍ରଥମ ପ୍ରଦୀପ ଶିଖା।
ତୁମେ ଥିଲ ମୋର ବଂଶୀର ବିଳାସ ଆନମନା ଗୁଣୁ ଗୀତ,
ଦେହ ଦହନର ଉଛୁଳା ଉଶ୍ୱାସ ବୟସ ନଈର ଘାଟ।
ସେଇ ନଈ ଘାଟେ ଯଦି କେବେ ଆମେ ଭେଟାଭେଟି ହେବା ଥରେ,
ସେଦିନ ହୁଏତ ଜହ୍ନ ଲୁଚିଯିବ କଳାମେଘ ଉହାଡରେ।
ଅଚାନକ କାହୁଁ ବଜ୍ର ବିଜୁଳି ଆକାଶୁ ପଡ଼ିବ ଛିଡି,
ଛାତି ତଳେ ଯେତେ ସାଇତା ଦରଦ ବୁଣି ହୋଇଯିବ ପଡ଼ି।
ଯୋଡ଼ି ହୋଇଯିବ ଜନ୍ମ ଜନ୍ମନ୍ତର ସମ୍ପର୍କ ର ସୂତା ଝିଅ,
କଟା ଗୁଡ଼ି ହୋଇ ଲଟେଇ ଜିବାଗୋ ତେଜି ୟେ ଜନ୍ମର ମୋହ।
ଆଉ ଥରେ ଫୁନି ଲେଉଟି ଆସିବ ମଧୁ ମାଳତୀର ଦିନ,
ତୁମେ ହେବ ମୋ ପ୍ରଣୟ ପତର ମୁ ତୁମର ଯୌବନ।
ଅଦିନ କୋଇଲି ନିରତେ ଗାଇବ ରହି ରହି ସାରା ରାତି,
ତା ସହିତ ମିଶି ଆମେ ଗାଉଥିବା ମହାନିର୍ବାଣ ର ଗୀତି।
_ସାରଦା ପ୍ରସନ୍ନ ଦାଶ_-
Hume Chae Sutte Ganja Ya saraab kisi ka Lat nehi hai,
Commerce Student Hai
Bas
Jue ka Lat hai.....-
गीत लिखे भी तो ऐसे कि सुनाए न गए
ज़ख़्म यूँ लफ़्ज़ों में उतरे कि दिखाए न गए
आज तक रखे हैं पछतावे की अलमारी में
एक-दो वादे जो दोनों से निभाए न गए।-
ଜଗନ୍ନାଥ
କଳା ମୁଖ ରେ ନାଲି ହସ,
ସମସ୍ତଙ୍କୁ କରେ ଆକର୍ଷଣ।
କେବେ ସେହିପାରାନ୍ତି ନାହିଁ,
ଯେବେ ଭକ୍ତ ଡାକେ ହୋଇ କରୁଣ।
ସେଥିପାଇଁ ଅନାଥ ର ନାଥ ଜଗନ୍ନାଥ,
ବୋଲି ହୋଇଛି ତାଙ୍କର ନାମକରଣ।
ମୋ ପ୍ରଭୁ ସମସ୍ତଙ୍କ ଠାରୁ ଟିକେ ଭିନ୍ନ,
ଯାହାଙ୍କ ନୟନ ହେଉଛି ଚକା ନୟନ।
ଖଣ୍ଡିଆ ହାତ ରେ ଦାସିଆ ନଡ଼ିଆ ନିଅନ୍ତି,
ଫୁଣୀ କାଳେ ଭକ୍ତ ତାଙ୍କ ପାଦ ଧରି ଦେବେ,
ସେଥିପାଇଁ ସେ ଲୁଚେଇ ଦେଇଛନ୍ତି ତାଙ୍କ ଛନ୍ଦା ଚରଣ।
କାନ ନଥାଇ ବି ସେ,
ଶୁଣି ନିଅନ୍ତି ଭକ୍ତ ର ଜଣାନ।
ଆଉ ନଅ ଦିନ ପାଇଁ ଭାଇ ଭଉଣୀ ସହିତ,
ମାଉସୀ ଘର ଆଡେ ଯାଇ କରନ୍ତି ଭ୍ରମଣ।
ଦଣ୍ଡ ତାଙ୍କର ବଡ଼ ଦାଣ୍ଡ,
ଦେଉଳ ତାଙ୍କର ବଡ଼ ଦେଉଳ,
ଦେଖିବାକୁ ଭାରି ଶୋଭନ।
ପ୍ରସାଦ ତାଙ୍କର ମହାପ୍ରସାଦ,
ଯାହା ପାପ ନୁହେଁ ମହାପାପକୁ କରେ ହରଣ।
ଠାକୁର ନୁହନ୍ତି ତ ସେ ପେଟୁଆ ନାଟୁଆ ବଡ଼ ଠାକୁର,
ଯିଏ ପ୍ରତିଦିନ ଛପନ ପଉଟି ଭୋଗ କରୁଛନ୍ତି ଭୋଜନ।
ଯାହାଙ୍କ ପାଇଁ ଭକ୍ତ ହୋଇଥାନ୍ତି ଭକ୍ତି ରେ ମଗନ।
ପାଇବାକୁ ତାଙ୍କର ଟିକେ ଦର୍ଶନ,
ଭାରି ବଡ ଲୋକ ମୋ ସାଆନ୍ତ,
କଣ କରିବି ତାଙ୍କର ବର୍ଣ୍ଣନ।
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वैश्या
बोहुत शर्म की ये बात है मेरे मन की ये जस्बात है,
उस रात उसके आंखों में चोरी थी और मैं जैसे खुली तिजोरी थी,
जमीर उसका कहीं को गया था और मेरे खुदा भी नाजाने कहां सो गया था,
वो तेजी से मेरा पीछा कररहा था और उसके हर कदम के साथ मेरा दिल मर रहा था,
धीरे धीरे उसके कदमों के आवाज तेज होने लगी और में भागने लगी तेज और तेज भागती रही,
खुशी के वो हर पल मैंने जो बिताई थी सब मेरे नजरों के सामने दौड़ने लगा,
लगा जैसे फरिश्ते भी खुदा से मुंह मोड़ ने लगे थे,
तभी बस तभी उस चौराहा पे एक दरवाजा खुल गया,
लगा जैसे इंसानों में खुदा मिल ग्या,
मैं दौड़ी गई उस घर के अंदर और अब तक वहीं कैद हूं,
जिस दर से भाग रही थी उसे को हर दिन जीती हूं,
एक प्याला है खरे पानी का बस उसे को हर दिन पीती हूं,
मेरे भी कुछ सपने थे कुछ घर पर बैठे आपने थे,
वो सपने कहीं सो रहे है और मेरे आपने सायद रो रहे है,
कब तो घर का सोना थी मैं अब तो रातों का खिलोना हूं,
कभी खुशी का राग थी मैं अभी अपने चुनर का दाग हूं,
ये मेरी कहानी है एक वैश्या की कहानी।
"कहां से बच कर कहां जाओगे
घोर अंधेरा है को जाओगे,
यहां इंसानों से ज्यादा सैतान बसते है
किस्से छोड़ोगे किस्से आपनाओगे।"
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ଶେଷ ବୈଶାଖ
ମୁଁ ଶେଷ ବୈଶାଖ ର ଥୁଣ୍ଟା ବରଗଛ,
ନିର୍ଦାଗ ଗ୍ରୀଷ୍ମ ମୋ ସାଥୀ,
ତୋ ମନ ପ୍ରଙ୍ଗନେ ମଳୟ ପବନ ଆଣିବି ଅବା କେଉଁଠି....।
ପଳାଶ ବଣ ରେ ପାଦ ମୁଁ ଥୋଇଲି,
ଗଙ୍ଗଶିଉଳି ର ସ୍ବପ୍ନ କୁ ଦେଖି,
ଅଭିନୟ ଏଠି ପଳାଶ ଫୁଲ ର,
ପ୍ରେମ ର ମହକ ନାହିଁ ଯେ ଏଠି...।
ଭଲ ପାଇଥିଲି ରମଣୀ ଲୋ ତତେ,
ପ୍ରେମିକା ର ସଂଘ୍ୟ ଦେଇ,
ଭୁଲିଯାଇଥିଲି ହେ ଗଙ୍ଗଶିଉଳି,
ତୁମେ ଗୋଟିଏ ରାତିକ ପାଇ ଖାଲି ଗୋଟିଏ ରାତିକ ପାଇଁ....।-