मेरे
नींद से जागने के साथ
जागती हैं तुम्हारी याद
यह मेरे दिनभर को
उल्लासित बनाती हैं।-
आओं प्रिये
हम-तुम ही कुछ ऐसा कर ले
गाढ़े होते अंधेर से
होड़ लगाएँ
अपने विश्वास
चाहत, सब-कुछ
पर एक दीया तो
विश्वास का जलाना हैं
ताकि टूटने और बिखरने के पहले
हम अंधेरे में
अपनी आखिरी उम्मीद की
जगमगाहट में
समाहित कर सके
अपनी
बची रह गई प्रार्थना।
Santoshi
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सपनों को देती हूँ हकीकत
प्रिये की मंद मुस्कान से
जो बांचती हैं
मेरी आँखों में यों उतरकर
ज्यों झील में उतरती हैं
सांझ की लालिमा
जिसका प्रकाश पुंज
उतर आता हैं
मेरी मन की गहरी कंदराओं के
बीच
जहाँ ढेर हैं मुरझाए फूलों का
जिनके बीच लिपटी हुई हैं
नई उम्मीद की पाँखें।
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बैर और ऋण रोग को,समझ न छोटी बात।
दिन दूना बढ़ता रहे, बढ़े चौगुना रात।।
सुप्रभात-
जान कर सदा अंजान हुए,
और सुनकर बहरे हुए।
ऐसी फितरत के संतोषी,
न तेरे हुए न मेरे हुए।
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दर्प वर्ण का क्या भला,कुम्लाता यों गात।
माघ मास पड़ते रहे,पीत वर्ण ज्यों पात।।-
गुजर सकेंगे हर दिन सब बेकार के।
मौसम आएगें ये जल्द बहार के।।
भूल गए कष्टों को सपना जान के।
खुश होंगें पल सारे रोज गुजार के।।
जश्न मनाते है हर कोई जीत पर।
आभारी भी होते हम तो हार के।।
दिल को लगता अपना कोई खास जब।
हर बाते मन जाती बिन तकरार के।।
ये गाड़ी ये बँगले कैसे मायने।
कायल हम केवल सच्चे दीदार के।।
खिलते रहते पुष्प सदा ही स्नेह के।
वारे-न्यारे होते दिल गुलजार के।।
सुख-दुख के साथी जो पहरेदार है।
"संतोषी" प्यासे क्या वे मनुहार के।-