सोचा चलो एक और नई तलाश करते हैं,
खुद को ढूंढने का एक बार फिर प्रयास करते हैं.
किसी की तलाश में जिंदगी में कहीं खो गए थे हम,
किसी अनजान रस्तो में न जाने कहां कब से सो गए थे हम.
पता नहीं नींद से जगे है या नहीं,
क्या पता अपने रास्तों पर चले है या नहीं,
उस अंधी दौड़ से दूर हुए हैं या नहीं,
वीभत्स जंगल के अंधेरे अभी गए हैं या नहीं.
उस गहरे समंदर में सूरज की पहली किरण की तलाश में है हम,
अब फिर से खुद से बातें करने की आस में है हम.
एक चमक थी जिसके उजियारे में सब धुंधले हो गए,
न जाने कब हम रहती आंखों के साथ अंधे हो गए,
आवाज कुछ गहरी थी, जहां हम खो गए,
शायद उसी दबाव में कुछ बहरे से हम हो गए.
खुद की दृष्टि में स्वयं को पाने की तलाश में हैं हम,
अपनी अंतरात्मा को सुनने, थोड़े बेकरार से हैं हम.
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