दर्शन दे रे जगदीश्वरा
तुज ह्रिदयात पाहतो मी
मन तुजसाठी व्याकुळ होई
दर्शन दे रे जगदीश्वरा
जाहलो हा खरेच धन्य
ह्या मार्गी तुझ्या जाता
मानून घे ही सेवा आता
दर्शन दे रे जगदीश्वरा
धरता तू माझी साथ
सुख दुःखासी कैसे लागणे
आता धरितो हे मागणे
दर्शन दे रे जगदीश्वरा
अर्पितो ही कला तुज
माझे असे काय आहे
नयन तुझीच वाट पाहे
दर्शन दे रे जगदीश्वरा-
Cook
Writer
Poet
Sketching
कृष्ण हा सखा माझा
कृष्ण माझा सोबती,
कृष्ण हा पाठीराखा माझा
कृष्ण माझा सारथी,
प्रश्न विचारी कृष्ण हा
देई तोचि उत्तरे,
मायेच्या ह्या अभेद्य चक्रव्यूहात
घालतो त्यासच साकडे,
वाट दाखवी कृष्ण हा
करितो सर्वांचा ऊद्धार,
दुर्धर अश्या ह्या कलियुगात
उघडतो मोक्षाचे द्वार,
कृष्ण हा अनंत आहे
कृष्ण आहे अनादि,
कृष्ण हा अद्वैत आहे
तं अहम् भजामि-
टूटे हुए सपने ले कर
मैं पलके मूँद लेता हूँ,
चाँद के ख़्वाब ले कर
सूरज से लड़ने निकलता हूँ-
समंदर की लहरों से हो गये है ये आँसू
आँखो के किनारे तक आ के लौट जाते है
लौट कर आना तुम भी कभी
ख़ुदा क़सम हर सीमाएं लांघ कर आऊँगा…-
मत कर ग़ुरूर इतना
ख़ुद के नसीब पर….
मत कर ग़ुरूर इतना
ख़ुद के नसीब पर….
आख़िर कोसना उसी को है….-
ख़ुद को पीछे छोड़ के
आगे बढ़े चलना
और फिर पीछे मुड़ के
ख़ुद को यूँ ही निहारना
ढूँढ तो रहा हूँ मैं, मगर किसे?
उन लम्हों को जो साथ बिताये?
या ख़ुद को,
जो उन लम्हों में जी रहा था?
जवाब राह दिखाएगा
शायद आज नहीं
पर एक दिन तो सही
टूटना तो मंज़िल है
टूटे हुए को संवारने में
पूरा सफ़र निकल जाता है
वो सफ़र में साथ कोई हो ना हो
हालात तो बदलते ही रहते है
और उनके साथ बदलते है हम
वो ग़म की आदत पीछे छूट जाती है
शायद पीछे मुड़कर इसे ही ढूँढता रहता हूँ
उस ग़म को
उसे वापिस अपनी आदत बना ने
मगर इस बार हमेशा के लिए-
ये अधूरे सपने पूरे करने की फिरात में
जब भी ये आँखें खोली है,
कही ना कही से सच्चाई
वापिस पलके मूँदने पर मजबूर कर देती है….-
ए ज़िंदगी तू महसूस कर
इस ग़म को मेरे तू महफूज़ रख,
अब इनसे भी तू मुझे जुदा मत करना
उस बिछड़े हुए को तू ख़ुदा मत करना,
जो होता है वो अच्छे के लिए
ये अब तू मुझे ना सीखा,
अगर कुछ करना ही है मेरे लिए
तो बता क्या है क़िस्मत का लिखा,
मानता हूँ हर तेरी बात
और तुझे भी मानता हूँ,
तू ये सब क्यों कर रही है
मैं यह सब जानता हूँ,
ए ज़िंदगी, बता तुझे क्या चाहिए
एक ही बार में मैं ला देता हूँ,
हर बार टुकड़ों में मरने से अच्छा
एक आख़िरी बार अब तुझे सँवार लेता हूँ….-
सायंकाळच्या ह्या लाल गुलाबी छटा
सूर्य ही मागे सोडून जातो
आणि आपल्या आठवणींचे छाप तू
तुझेच समजून मिटवू ही पाहतो
चंचल मनातले ह्या काहूर माझ्या
तुला ही अस्वस्थ करते का?
पाहून अशी घुसमट ह्या जीवाची
तुझी काहिली कधी होते का?
तसं सांभाळून ही घेतोस तू
अगदी कधीच नाही असं नाही
पण असं कितीही समजावलं तरी
ती शाश्वती राहतेच असं नाही
दुराव्याची ही काळोखी रात्र तुझी
मिलनाची ही माझी सुंदर सकाळ
दोन्हीचा मध्य जरी प्रखर दुपार
संयमानेच होइल ती रम्य सायंकाळ…-
कुछ मंज़िलों का हासिल न होना ही
सफ़र को जारी रखनें का कारण बन जाता है…-