Sankalp Raj Tripathi   (संकल्प)
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Joined 4 March 2017


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30 JAN 2020 AT 8:06

वो जिसने जान दी,
वो जिसने जान ली,
एक भगवान में मानता था।
दूसरा सिर्फ भगवे में।
कातिल रंग में भगवान ढूंढते हैं,
असली आस्तिक रग रग में भगवान ढूंढते हैं।

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26 JAN 2020 AT 7:55

स्याही खून सी गाढ़ी,
पसीने की बूंदे खारी,
अब भी चस्पा है उस किताब में।
उसी से 'हम' हिंदुस्तान हैं -
यूहीं किसी को संविधान नहीं मिलता।
विरासत में मिला है जो,
उसे वैसे ही सहेजना है,
खैरात समझने की भूल भी मत करना।
यूहीं किसी को हिंदुस्तान नहीं मिलता।

हम भारत के लोग।

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5 JAN 2020 AT 13:40

सामान महंगा है।
होगा ही।
ज़िन्दगी थोड़े ही है।
सस्ती ज़िन्दगी, महंगे सामानों से लैस है,
तभी ज़िंदा हैं।
बस, आग लगने की देर है।

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13 DEC 2019 AT 18:37

इतिहास के पन्नों में राख चिपकी मिलेगी उन सबकी,
जो झुलस गए तुम्हारी बर्बरता की आग में।
तुम शुक्र ना मनाओ इस बात की वो राख हो जाएंगे,
चिंता करो बस इतनी कि-
अमर नहीं हो तुम, ना ही हो पाओगे,
तुम्हारी साख की राख ढूंढे ना मिलेगी-
इसका अफसोस कैसे मनाओगे?

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11 DEC 2019 AT 15:08

मेरे घर में 9 लोग रहते हैं।
एक कमरे के छोटे से घर में,
मेरा बड़ा सा परिवार फ़ैल के रहता है।
4 दीवारें, छत, अलमारी, कुर्सी, मेज़ और मैं।
उस छोटे से घर में एक बड़ा सा हिस्सा ख़ाली है।
उस देखकर तुमसे बात करता हूं मैं।
प्यार नहीं करता मैं तुमसे।
बस, हर पल, तुम्हे याद करता हूं मैं।

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17 NOV 2019 AT 3:25

लगता है आज थोड़ी सी मौत सी हुई है मेरी,
चादर को कफ़न समझ के ओढ़ के सो जाऊंगा।
कल थोड़ा मुर्दा उठूंगा,
ज़िन्दगी की जद्दोजहद में फिर खो जाऊंगा।

लगता है आज थोड़ी सी मौत सी हुई है मेरी,
जो हुआ है आज, वो कैसे भूल पाऊंगा?
सो ही जाता हूं, सो जाऊंगा।
स्वप्न काले होंगे चाहे, पर उनमें ही खो जाऊंगा।

लगता है आज थोड़ी सी मौत सी हुई है मेरी,
जिनका अंश हूं, आज उनसे टूटा हूं मैं,
छिटक के गिर गया हूं, गिर के बिखर गया हूं,
इस बिखरे हुए अंश को कैसे बटोर पाऊंगा?
अकेला हूं, दूर हूं, अकेला ही सो जाऊंगा।

लगता है आज थोड़ी सी मौत सी हुई है मेरी,
दिमाग की कचहरी में लगातार तारीखें चस्पा हैं,
हर पल चल रही है पेशी मेरी,
मैं ही मुवक्किल, मैं ही वकील हूं,
मैं ही सवाल, मैं दलील हूं,
इस मुक़दमे का फैसला मैं कहां फ़िर कर पाऊंगा,
हार गया हूं अपनों से जब, अब खुद से क्या ही लड़ पाऊंगा।
खुद की सज़ा की तारीख मुकर्रर करनी है,
उस दिन पूरा ही मर जाऊंगा।

लगता है आज थोड़ी सी मौत हुई है मेरी,
थोड़ा ज़िंदा, थोड़ा मुर्दा, ज़िन्दगी से लड़ता जाऊंगा,
आज थोड़ी सी मौत हुई है मेरी,
अब ज़िंदा मुर्दा सा ही रह जाऊंगा।

जीवन का अंत, मौत की शुरुआत यूहीं अचानक नहीं होती।
आने और जाने में वक़्त लग जाता है,
वो वक़्त पूरा होगा जब,
उस दिन तर जाऊंगा।
लगता है आज थोड़ी सी मौत हुई है मेरी,
कभी ना कभी, घिसट घिसट कर जीने के बाद,
मर जाऊंगा।

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15 NOV 2019 AT 17:40

कहानी के बगैर फिल्म नहीं बनती, ये वो भी जानते हैं।
फिल्म बनने के बाद कहानीकार को कोई नहीं पहचानता,
बड़ी बेहायाई से ये वो भी मानते हैं।
वो अपनी हक़ीक़त की फितरत को मानें ना मानें,
कहानीकार बड़े समझदार होते हैं -
वो सबकी फितरत को पहचानते हैं।

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14 NOV 2019 AT 22:33

आवाज़ मत दो,
बस देख कर बुलाया करो मुझे।
तुम आवाज़ दोगी, मोहल्ला शोर मचाएगा।
मोहल्ले में इश्क़ नहीं है अब।
हम मोहल्ले में नहीं हैं अब।

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7 NOV 2019 AT 11:44

सो तो लेता है पर,
नींद आयी नहीं है बरसों से।
ढके थे जो सपने चादर तले,
उसे खीच लेने से ऐसा ही होता है।
नींद नहीं आती है, आजकल -
वो सोता तो है पर बेचैन सा सोता है।
सपनो पर से चादर हटाने से,
अक्सर ऐसा ही होता है।


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22 OCT 2019 AT 1:40

रिश्तों की देहलीज़ के भीतर,
लोगों के घर भी होते हैं।
लोग घरों में रहते हैं,
देहलीज़ पर नहीं।
मुसीबत बस इतनी है,
लोग खुद से ज़्यादा,
देहलीज़ को तव्वजो देते हैं।
रिश्ते दहलीज़ों से नहीं बनते,
लोगों से बनते हैं।
ये भूल जाते हैं हम।

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