Sanjay Tripathi   (संजय त्रिपाठी)
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रग रग में है साहित्य और सियासत..
आशावादी..🙏🙏
Joined 20 September 2017


रग रग में है साहित्य और सियासत..
आशावादी..🙏🙏
Joined 20 September 2017
25 APR AT 23:54

मनुष्य का मन अधिकांशतः उलझा हुआ रहता है, कभी व्यक्तियों के चुनाव के द्वंद में, कभी किसी व्यक्ति के साथ चलने या उसे विदा करने के द्वंद में, कभी घटनाओं या क्रिया-कलापों में (जो बीत चुका हो या जिसके उद्‌घाटित होने की सम्भावना हो), जिसमें हम किसी व्यक्ति को ठीक-ठीक जान लेना चाहते है या जान लेते है परंतु इसके बाद भी अगर वह व्यक्ति अनजान लगने लगता है, तो उस व्यक्ति को विदा देने की इच्छा जन्मती है और घटित सारे घटनाक्रम खटकने लगते हैं, पर अगले ही क्षण उस व्यक्ति के जाने के बाद पुन: लौट आने की संभावित आकांक्षा के साथ इन सब घटनाओं के पुनरावृत्ति की सम्भावना पर सभी घटनाएं नगण्य हो जाती है और उस व्यक्ति का आना खटकने सा लगने लगता है, अतः मन पुनः उस व्यक्ति को विदा देने के लिए विह्वल हो उठता है।

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16 AUG 2024 AT 21:02

आवाज़े दे - देकर मुझे बुला रहा है,
वो शख़्स खुद को ही झुठला रहा है,
जो कहता था मेरे जाने का जश्न मनाएगा,
मैं नहीं हूंँ तो उसका मातम मना रहा हैं।

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8 OCT 2019 AT 15:21

जीवन की यह सत्य रीति
सदियों से चलती आ रही है
जहाँ सभी करते है कोशिश
किसी को ठीक ठीक समझने का
उसके परत दर परत खुलते नए आवरण से
क्योंकि हम सभी ढके है
अनंत अदृश्य आवरण से,
तुम भी दिखाते हो
खुद को हिंसक और घृणित
पर यह सत्य तुमको भी पता है कि
खुलेगा तुम्हारा फिर एक नया आवरण
छिपता नही यह बहुत दिनों तक
अथक प्रयासों के बावजूद,
तब देखा और समझा जाएगा
तुमको फिर नए नजरिए से
शायद फिर तुम स्नेहिल लगो
या सम्भव है तुमसे
घृणा रखना ही एकमात्र उपक्रम बना रहे,
पर मुझे चुपचाप करना होगा इंतज़ार
तुम्हारे नए आवरण के खुलने का...

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24 APR 2019 AT 19:25

देखो यही है
इनका पुश्तैनी हथियार
आँखों में जो धधक रहा
निष्क्रिय अंगार ज्वार
लगातार...
पर हर बार दब जाती है
सभी वेदना,
उस बिडम्बना के डर से
जिसने हैं भरा इनके कलुषित पेटों को
मानव के हाड़ माँस, धड़ और सर से,
पर अब और सहन का धीरज
डगमगा चुका सबके मन से,
अब और नरसंहार नही होगा
एक एक का बारी बारी से,
होगा अगर दमन तो एक साथ
सबका ; एक हवन कुंड में...

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15 JUL 2020 AT 20:14

बुद्ध है तीनों तरफ़, पर बुद्ध को न चुन रहे है,
अपनी क्षमता के मुताबिक युद्ध को ही बुन रहे है,
कोई कितनी भी करे संस्तुति शांति मार्ग की पर
शक्ति जिसके पास है अब सब उसी की सुन रहे है।

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20 APR 2020 AT 20:27

कल तक लिंचिंग बड़ा प्रश्न था
और आज है शून्य,
साहब मैं पूछता हूँ आप लोगों से
आप लोगों के पास कोई पैमाना है क्या
लिंचिंग मापने का..?
क्या उन लिंचिंगों में ज्यादा दर्द था
जब आपकी कराहे निकल रही थी
चीख चीख कर तमाम सोशल मीडिया प्लेटफार्मों से
मैं जानना चाहता हूँ तमाम सेक्यूलर बुद्धिजीवियों से
कहाँ से लाते हो इतना दोगलापन..?
कब तक केवल एक पक्ष की बात करके
उनके गलत होने पर भी
उनके हक़ हुक़ूक़ के लिए लड़ लड़ के
अपने आप सेक्यूलर बने रहोगे..?
और धकेलते रहेंगे पूरे समाज को
भेदभाव और वैमनस्यता के दलदल में...?

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16 APR 2020 AT 17:12

जीवन के इस खूबसूरत गणित में
हमारी कई कोशिशों के बाद
हम दोनों के रिश्तों में, कभी भी..
वो ठहराव नही आया
जो हमें एक वृत्ताकार रूप दे कर
हमें हमेशा के लिए एक कर सके
जहाँ जीवन के एक निश्चित पथ पर
हम दोनों एक दूसरे पर आकर रुक जाए..
पर जब भी हम
कोई ऐसी घटना होती है
जहाँ हम खुद को टूटा या हारा हुआ महसूस करते,
या खुद को जीवन के प्रारम्भिक बिंदु पर खड़ा हुआ पाते तो
हमें जीवन के अगले किसी बिंदु तक ले जाने वाली
एक गतिमान रेखा के रूप में
आपसी अस्तित्व को
हम दोनों सहर्ष स्वीकार कर लेते है,
शायद प्रेम का यही स्वरूप
हम दोनों के लिए प्रारब्धिक है..

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16 APR 2020 AT 17:10

तुम जो कह दो तुम्हारे लिए रोज़ मैं,
जिंदगी के नए बंद लिखता रहूँ..

शूल से मेरे जीवन में तुमने सदा
फूल खुशियों का हँस हँस के अर्पण किया
जब भी सहमे या ठिठके कदम राह पर
तुमने खुद को हमारा है दर्पण किया..
अब तुम्हारे समपर्ण के मानिंद मैं,
भावना के नए छंद लिखता रहूँ..
तुम जो कह दो तुम्हारे लिए रोज़ मैं,
जिंदगी के नए बंद लिखता रहूँ..

तेरे होने से मन के यहाँ पर मेरे
कल्पना के सभी तार झंकृत हुए
मूक वाणी के तेरे हाँ आमोद से
शब्द के सारे संसार विस्मृत हुए..
वाकपटुता के भारी छलावो में; मैं
मौन के सारे आंनद लिखता रहूँ..
तुम जो कह दो तुम्हारे लिए रोज़ मैं,
जिंदगी के नए बंद लिखता रहूँ..

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24 MAR 2020 AT 1:58

होती है ऐसी बहुत सी प्रेम कहानियाँ
जो शुरू होती है चारागाहों पर
जहाँ पशुओं को चराने जाता हैं एक चरवाहा,
और जहाँ आती है एक लड़की
तोड़ने सफ़ेद और लाल तिपतिया के फूल
जिनसे बना सके वो फूलों का गुलदस्ता,
और फिर वो पाती हैं
पत्तों पर लिखा हुआ प्रेम पत्र
जिन्हें वो पढ़ती है
और जिनका प्रतिउत्तर देती है
संभल कर अपने आँखों और मुस्कान से
फिर जैसे जैसे ढलने लगता है दिन
ढलने लगती है ये प्रेम कहानी भी
फिर वो चरवाहा किसी भैंस पर सवार होकर पार कर जाता हैं नदी
और ख़त्म हो जाता है एक अध्याय नदी के मुहानों पर..
पर वो प्रेमिका
संभाल कर रखती है अपने प्रेम पत्रों को
गांव के छोर को पहुँचने तक,
और जैसे जैसे बढ़ती है घर की तरफ
वह अपने प्रेम पत्रों को
खिलाते हुए चली जाती है बकरियों को
और अमर कर देती हैं अपनी प्रेम कहानी को..

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18 MAR 2020 AT 19:53

जब कड़ाके की ठंड या चिलचिलाती धूप में
अपनी आजीविका के लिए
बड़े बड़े शॉपिंग मॉल के सामने
करतब दिखा रही होती हैं छोटी छोटी बच्चियाँ,
तो मैं उम्मीद करता हूँ कि..
उस रोड से स्कूल जाते या घर लौटते लड़कों में से
किसी न किसी के गार्जियन या खुद वो लड़का
रोक कर अपनी कार या साईकल
निकाल कर दे दे उसे दस रुपये,
अगर ऐसा नही होगा तो
मैं चुरा लेना चाहता हूँ उस लड़के का टिफिन
उसकी जुराबें और उसका स्वेटर
और ले जाकर दे देना चाहता हूँ
उस बच्ची को,
जो बड़ी हो जाती है वक़्त से पहले
जो निभाना सिख गयी है अपनी जिम्मेदारियों को
पर जिन्हें सिखाया नही गया चोरी करना,
और जो मुस्कुराते हुए रोज़ खेलती है
जिंदगी के चौसर पर मौत से आँखमिचौली..

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