बुत से सर टकराने से क्या फ़ायदा
जिस्म में जाँ हो तब तो जवाब देगा-
उसने कहा तुम फ़ना हुए ,सारी जहाँ की नज़रों से
जैसे पत्ते टूट गए हो, हर पतझड़ में शजरों से
भला कभी टूटे पत्ते, दरख्तों से जुड़ पाते हैं
गले लगा झंझावातों को, उनके संग उड़ जाते हैं
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षड्यंत्रों के दौर हैं साहब
अपने भी उसमे शामिल हैं
रिन्दों को भला मैं दोष क्यूँ दूँ
जब अपने कातिल साहिल हैं-
हर चिलमन को बंद किया
आती थी खुशबु जिधर से उनके दर की
भूल गया उन ख्वाबों को
जहाँ न खबर रहती थी शब् की सहर की
अब दर्द हो या सुकूँ न मलाल जरा सा
न उम्मीद उनसे वफा की न कहर की-
चालबाजियां, फितूर सिखा दिया ज़माने ने हमको
वरना शरीफ लोगों की फेहरिस्त मे अपना भी नाम शामिल था-
वो उल्फ़त की सिर्फ रस्म निभाते हैं
हम चाहत की हर कसम निभाते हैं
सूरज ,तारे सब जब, छुप छुप आते हैं
प्रियवर भी महफ़िल में ,चुप चुप आते हैं
इक खुशबू घोल फ़िज़ां में तुंम क्यूँ जाते हो
जब ग्रीषम लगे बसंत प्रिये तुंम क्यूँ जाते हो-
उम्मीद, ख़्वाब, असबाब सब छूट गए
हम तो पत्ते थे सूखे, जो टहनियों से टूट गए
उनका क्या भरोसा, जो थे बेमौसम बारिश की तरह
रुख हवा का तेज देखा, और रूठ गए-
खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही
जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है
फ़िराक गोरखपुरी-
मेरी गुस्ताखियों का पुलिंदा ले दर बदर भटके
हर आम खास मे मुझे यूँ ही बदनाम किया
जो न कर सकी आज तक गैरों से बेरुखी मेरी
मेरे अपनों ने मोहब्बत मे वो काम किया
झांक के न देख सके अपना गिरेबाँ तनिक
अनायास मे ही बेवफा मुझे नाम दिया-
चलता हूँ ये मेरे दोस्त
जिंदगी मे कहीं किसी मोड़, फिर मिलेंगे
याद रखना जरा सी नसीहत मेरी
गर बागबां न सुकूँ से ,तो गुल कहाँ खिलेंगे-