*निर्वहन*
सारी टंकार,
सारे कोदंड
डिगा नहीं पा रहे,
जीवन के महाभारत का
दर्शन कर रहा हूँ,
घटनाओं का
वर्णन कर रहा हूँ,
योगेश्वर उवाच
श्रवण कर रहा हूँ,
'संजय' होने का
निर्वहन कर रहा हूँ!
*संजय भारद्धाज*
writersanjay@gmail.com
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*न्यूनतम*
अनुभूति भी समझ लेती है
लिखनेवाले की चादर,
सो, कम से कम शब्दों में
अभिव्यक्त हो लेती है !
संजय भारद्वाज
sanjayuvach2018@gmail.com
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*अनुभूति*
अनुभूति प्यासी है
अभिव्यक्ति की,
रचनात्मकता
बंधन कैसे पाले?
मेरी भावनाएँ तो हैं
अग्नि ज्वालामुखी की,
उफनते लावे पर
बाँध कैसे डालें..!
*संजय भारद्वाज*
9890122603
writersanjay@gmail.com
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*कहन*
तुमसे कुछ कहना था..,
आदि-अंत,
सुख-दुख,
जीवन-मृत्यु,
दिवस-रात्रि,
पूर्व-पश्चिम,
आँसू-हँसी,
प्रशंसा-निंदा,
न्यून-अधिक,
सरल-जटिल,
सत्य-असत्य,
धरती-आकाश,
अँधकार-प्रकाश,
और विपरीत ध्रुवों पर बसे
ऐसे असंख्य शब्द,
ये सब केवल विलोम नहीं हैं,
ये सब युगल भी हैं,
बस इतना ही कहना था...!
*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com
7:11 बजे संध्या, 16 अप्रैल 2025
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*आत्मघात*
उसके भीतर
ठंडे पानी का एक सोता है,
दुनिया जानती है..,
उसके भीतर
खौलते पानी का एक सोता भी है,
वह जानता है..,
मुखौटे ओढ़ने की कारीगरी
खूब भाती है उसे,
गर्म भाप को कोहरे में
ढालने की कला बख़ूबी आती है उसे..,
धूप-छाँव अपना स्थान बदलने को हैं,
जीवन का मौसम अब ढलने को है..,
जैसा है यदि वैसा रहा होता,
शीतोष्ण का अनुपम उदाहरण हुआ होता..,
अपनी संभावनाएँ आप ही निगल गया,
गंगोत्री-यमुनोत्री होते हुए भी
ठूँठ पहाड़ ही रह गया...!
संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com
(सांझ 4:52 बजे, 13.5.2021)-
*प्रश्न*
मैं हूँ, मेरा चित्र है;
थोड़ी प्रशंसाएँ हैं
परोक्ष, प्रत्यक्ष भरपूर आलोचनाएँ हैं,
मैं नहीं हूँ, मेरा चित्र है;
सीमित आशंकाएँ
समुचित संभावनाएँ हैं,
मन के भावों में
अंतर कौन पैदा करता है-
मनुष्य का होना या
मनुष्य का चित्र हो जाना...?
प्रश्न विचारणीय तो है मित्रो!
*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com
(शुक्रवार, 11 मई 2018, रात्रि 11:52 बजे)
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*सैडिस्ट*
रास्ते का वह जिन्न, भीड़ की राह रोकता
परेशानी का सबब बनता,
शिकार पैर पटकता, बाल नोंचता,
जिन्न को सुकून मिलता, जिन्न हँसता..,
पुराने लोग कहते हैं-
साया जिस पर पड़ता है, लम्बा असर छोड़ता है..,
रास्ता अब वीरान हो चुका,
इंतज़ार करते-करते
जिन्न बौरा चुका, पगला चुका,
सुना है-
अपने बाल नोंचता है, सर पटकता है,
अब भीड़ को सकून मिलता है..,
झुंड अब हँसता है,
पुराने लोग सच कहते थे-
साया जिस पर पड़ता है, लम्बा असर छोड़ता है..।
*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com
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*महाकाव्य*
तुम्हारा चुप,
मेरा चुप,
कितना
लम्बा खिंच गया,
तुम्हारा एक शब्द,
मेरा एक शब्द,
मिलकर
महाकाव्य रच गया!
संजय भारद्वाज
9890122603
writersanjay@gmail.com
(कवितासंग्रह 'योंही।')
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*पुजारी*
मैं और वह
दोनों काग़ज़ के पुजारी,
मैं फटे-पुराने,
मैले-कुचले,
जैसे भी मिलते
काग़ज बीनता, संवारता,
क़रीने से रखता,
वह इंद्रधनुषों के पीछे भागता,
रंग-बिरंगे काग़ज़ों के ढेर सजाता,
दोनों ने अपनी-अपनी थाती
विधाता के आगे धर दी,
विधाता ने
उसके माथे पर अतृप्त अमीरी
और मेरे भाल पर
समृद्ध संतुष्टि लिख दी..!
*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com
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*दुनिया*
उसे दुनिया चाहिए थी,
वह दुनियावी न था,
दोनों ने बसा ली
अपनी-अपनी दुनिया,
सुनते हैं, अब उसे
दुनिया से वितृष्णा है,
वह अपनी दुनिया में
भरपूर खोया हुआ है,
एक बार फिर अलग-अलग हैं,
दोनों की अपनी-अपनी दुनिया...!
*संजय भारद्वाज*
writersanjay@gmail.com
7 अप्रैल 2025, दोपहर 3:39 बजे
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