*ऋतुराज*
हर क्षण तन छीज रहा,
हर क्षण मन रीझ रहा,
जितना छीजता, उतना रीझता,
छीजना, रीझना, स्वयं पर खीजना,
विरोध का आभास अथाह,
विरुद्ध का समानांतर प्रवाह,
तब पाट का आकुंचन होना,
समानांतर का मिलन होना,
अब न छीजना, अब न रीझना,
भीतर-बाहर मानो संत होना,
देहकाल में ऐसा भी वसंत होना...!
संजय भारद्वाज
writersanjay@gmail.com
( 11:15 बजे, मकर संक्रांति 2024)
-