तुम और मैं अब हम नहीं हैं,
कैसे मानूँ, कोई ग़म नहीं है!
फ़ुर्सत के लम्हे आए-गए से,
कैसे कहूँ, अब भ्रम नहीं हैं!!-
अब तो तुम और ज़माना जो समझे वही हूँ मैं,
मानते रहो ख़ुद से तुम दूर, पर खड़ी यहीं हूँ मैं।
वादा किया था तुमने, मगर ख़ुद उसे निभाऊँगी,
तुम रहो महफ़िल में, सदा ही तो तन्हा रही हूँ मैं।
आदत है मुझे अपनों से मिली नज़रअंदाज़ी की,
तुम बने रहो नूर-ए-नज़र, उन्हीं से तो बही हूँ मैं।
कहलाने दो मुझे बुरा, मार लेने दो मुझे ताने भी,
बताते रहो तुम ग़लत, मुझे है मालूम सही हूँ मैं।
जिसे जितना माना, वो उतना अपना नहीं 'धुन',
कोई जहाँ चाहे वहाँ जाये, जहाँ थी, वहीं हूँ मैं।-
उम्मीदों से बना इन्सान, उम्मीदें ही बनाती महान,
सिखाती बढ़ते रहना, उम्मीदें ही दिलाती पहचान।-
गुज़ारा है वो वक़्त भी जिसमें ठीक मैं लगती थी,
जश्न में भी रही तन्हा जिसमें शरीक मैं लगती थी।
अपना जताने वाले कुछ लोग भी होते धोखेबाज़,
रह दिल में रही दूर जिसमें नज़दीक मैं लगती थी।
क़ुर्बान की है कई बार अपने हिस्से की ख़ुशियाँ,
मेरी थी वह रौशनी, जिसमें तारिक मैं लगती थी।
दिल के रिश्ते में भी लोग करने लगते हैं व्यापार,
मेरा था उस पर हक जिसमें भीक मैं लगती थी।
क्यों ऐसा दिल पाया, जो मानता नहीं बुरा 'धुन',
बड़ा रहा किरदार, जिसमें बारीक मैं लगती थी।
-संगीता साईं 'धुन'
(तारिक- अँधेरा; भीक- भीख)-
मत पड़ने दो उन्हें फर्क़ अपने जीने-मरने से,
कम नहीं होगी मुसीबत किसी के सोचने से।
काँटों की कमी नहीं है उनकी अपनी राहों में,
होता होगा मलाल उन्हें बेवजह वो चुभने से।
सोचते होंगे, पर वक़्त पे किसी का बस नहीं,
होते होंगे हताश वक़्त पे वक़्त ना मिलने से।
सबकी परवाह में वो भूल गये हैं ख़ुद को ही,
करेंगे फिर से वो याद, तुम्हारे याद करने से।
उँगली उठाने से पहले देखना निशाना 'धुन',
एक उनपे, तो तीन तुमपे ही होंगी उठने से।-
साईं! हर हालात में विश्वास कम ना होने देना,
साईं भक्ति का यह एहसास कम ना होने देना।
लम्हा-दर-लम्हा अपनाये रखूँ मैं श्रद्धा-सबुरी,
नाउम्मीदी में कभी ये आस कम ना होने देना।
है यक़ीं अँधेरों के बाद रौशनी भी आ जाएगी,
आप ढूँढ़ने की कभी प्यास कम ना होने देना।
अच्छे-बुरे हालात में छिपा है आपका फ़ैसला,
आगे बढ़ने के लिए ये साँस कम ना होने देना।
सबकुछ साईं का, हर जन-कण में वो ही 'धुन',
साईं! पल-पल का उल्लास कम ना होने देना।-
ऐसा क्या लिख दें, बताओ? जो भा जाए तुमको!
दिल चीर के बनाएँ स्याही, जो लुभा जाए तुमको!
हाँ में हाँ भी अब हमारी रास तुमको आती नहीं है,
ऐसा क्या कह दें और कि जो बहला जाए तुमको!
खलती थी पलभर की दूरी,अब अमिट फ़ासले हैं,
क्या बिछाएँ राह में कि क़रीब लाया जाए तुमको!
ख़ामोशी समझने वाले अब समझते नहीं लफ़्ज़,
ख़ुद को कितने दें ज़ख़्म जो तड़पा जाए तुमको!
ज़रूरत रही नहीं उन्हें, अब मिन्नतें मतकर 'धुन',
करते हैं उसके हिस्से ख़ुशी जो पा जाए तुमको!-
कहने वाली बातें ही कभी कह नहीं पाते,
नक़ाब ओढ़ लेते लफ़्ज़ वो बह नहीं पाते।
इसकी-उसकी सोच दफ़्न रहते एहसास,
जज़्बात उनसे मिले ज़ख़्म सह नहीं पाते।
सुन मिश्री से बोल मुस्काती हैं कड़वाहटें,
दिल-दिमाग़ भी फिर साथ रह नहीं पाते।
बयाँ करूँ अपना हाल-ए-दिल कि सुनूँ,
खो गहराई में ख़्याल कोई तह नहीं पाते।
क्यों अपना ही दिल इतना नादाँ है 'धुन',
इतने तूफ़ाँ में भी क्यों हम ढह नहीं पाते!-
जो ख़ुश हैं तुम्हारे बिना, ख़ुश उन्हें तुम रहने दो,
देके ख़ुद से आज़ादी, ख़ुद में उन्हें तुम जीने दो।
बदलकर तुमको फिर मुँह उसने ही मोड़ लिया,
ओढ़ने दो नक़ाब, पीछे भी उन्हें तुम हँसने दो।
आदत लगा देने के बाद एक दिन ऊब जाएँगे,
बढ़ने दो दूरियाँ, सुकूँ के घूँट उन्हें तुम पीने दो।
दिलाते हैं यक़ीं, नहीं औरों सी उनकी फ़ितरत,
तोड़के वादे उन्हीं औरों से उन्हें तुम मिलने दो।
ख़याली-बाग़ से वीराँ हक़ीक़त अच्छी है 'धुन',
कह उन्हें शुक्रिया, आगे ही उन्हें तुम बढ़ने दो।-