कलयुगी इंसान मैं, ना चरित्र हैं ना पवित्र हूं।
ना वचन का मेरे मान हैं, ना इंसान यहां महान् हैं
ना कर्म का मुझको ज्ञान है, बस धन यहां महान् हैं।
ना कोई नियम यहां, ना ही कोई सत्य बचा
फायदा देख मनुष्य ने, काल्पनिक कथा रचा।
तपस्या करना भूले हम, तभी तो क्रोध आगे हैं।
क्षमा करना सीखें हम, तभी तो पाप आगे हैं।
माया ने जाल बिछा दिया, प्रेम का स्वांग रचा दिया।
मनुष्य ने मनुष्य को मनुष्य से लड़ा दिया।
बस अब चारों ओर गूंजता गलतियों का शोर है
ना आगे कोई कृष्ण हैं ना पिछे कोई और है
आसमान से जमीन पर, बस इंसान ही इंसान हैं ।
ना सत्य बचाने को कोई, यहां कर रहा संग्राम हैं।
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