वो दिन नहीं रहे अब ,
.....जब तेरा अक्स दिखाई देता था हर सूँ
ये चाँद ,संगेमरमर की गोल मेज़ ,होता था
कुर्सियाँ डाल कर, बैठते थे ,हम तुम रुबरू
सुर्ख स्याही से ,संग संग लिखते थे इबारतें
हर्फ़ होते थे लहू मेरा ,हर नज़्म तेरी गुफ़्तगू
तेरे ख्वाब जब ,ढलते थे ,ग़ज़लों में हमारी
इत्र सा बिखर जाता था ,उड़ती थी खुशबू
अब चाँद तो उतरता है ,बेनूर स्याह रातों में
शमा सी जलती,'संध्या" लेकर तेरी आरज़ू
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