इबारत जो उदासी ने लिखी है
बदन उस का ग़ज़ल सा रेशमी है
परिंदा उड़ गया लेकिन क़फ़स में
उदासी हर तरफ़ बिखरी पड़ी है
उदासी ओढ़े वो बूढ़ी हवेली
न जाने किस का रस्ता देखती है
उदासी सुब्ह का मासूम झरना
उदासी शाम की बहती नदी है
किसी की पास आती आहटों से
उदासी और गहरी हो चली है
ग़ज़ल - संदीप ठाकुर
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हैं सितारे डरे-डरे फिर से
रात साज़िश न कुछ करे फिर से
जिस्म पर काई जम रही है या
ज़ख़्म होने लगे हरे फिर से
संदीप ठाकुर
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ख़यालों में रहते हैं जो साथ मेरे
कभी छू न पाए उन्हें हाथ मेरे
संदीप ठाकुर-
कह न पाया आदतन तो और कुछ
चाहता था पर ये मन तो और कुछ
संदीप ठाकुर-
मुझ से दो दिन अलग रही है तू
देख तो कैसी लग रही है तू
हो गया राख जल के मैं लेकिन
धीरे - धीरे सुलग रही है तू
संदीप ठाकुर-
हाथ में जब गिलास होता है
दस जमा दस पचास होता है
साल भर इंतज़ार रहता है
कोई दिन इतना ख़ास होता है
संदीप ठाकुर-
छोड़ तो आये गांव इक दम सब
पर जड़ें अपनी भूले कब हम सब
फूलते हैं किवाड़ बारिश में
कट के भी पेड़ में हैं मौसम सब
संदीप ठाकुर-
झाग गुमसुम लहर के आंँसू हैं
गिरते पत्ते शजर के आंँसू हैं
है अलग ढंग सब के रोने का
ओस क्या है सहर के आंँसू हैं
संदीप ठाकुर-
अब मुसीबत नई खड़ी मत कर
तू घड़ी देख गड़बड़ी मत कर
चांद बाहों में सो रहा है मेरी
रात ढलने में हड़बड़ी मत कर
संदीप ठाकुर-
आंख से मत कुरेद तस्वीरें
खोल देती हैं भेद तस्वीरें
दास्तां रंगों की समेटे हैं
धुंधली काली-सफेद तस्वीरें
संदीप ठाकुर-