SANDEEP BISHNOI   (अश्क)
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Joined 13 February 2018


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Joined 13 February 2018
17 MAR 2022 AT 17:07

होली सिर्फ फागण की चांद रात को आए ऐसा जरूरी नहीं
होली फागण की चांद रात को आ ही जाए ऐसा भी जरूरी नहीं

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7 JAN 2022 AT 19:20

एक कहानी है सुनोगे ??

पता है? उसे मोहब्बत है किसी और से !💔.......…






कहानी खत्म मेरे दोस्त😔

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13 APR 2021 AT 21:36

सपनों का संसार क्या होता है ?
मुझसे पूछो मैं बताऊंगा

एक बड़ी सी दीवार
उसमे 550 का परिवार
नीले पीले लाल हरे रंग
रंगों का एक दूसरे से प्यार
कुछ थोड़े शैतान, कुछ थोड़े नादान है
किसी के लिए जन्नत, किसी के लिए जहान है
ऐसा हैं इक कुनबा हमारा
सच पूछो तो महज कुनबा नहीं, वरदान है
एक बड़ी सी रसोई
मिल बांट खाते सब बहन-भाई
रंग जाति धर्म पद भेद रहित सब
मिलकर रहते हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई

तुम समझ गए ना मैं किसकी बात कर रहा हूं या अभी भी मन में कोई संशय है
बात बड़ी सीधी है साथी, वो सपनों का संसार और कुछ नहीं नवोदय है






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4 JUN 2020 AT 17:30

काश! वो इंसान होती तो इंसानों पर विश्वास नहीं करती

उसने भी सोचा होगा lockdown खत्म हुआ थोड़ा इंसानों की बस्ती में चला जाए
काश! वो यह ख्याल नहीं करती
भूख को शांत करने, नन्ही सी जान का पालन करने वो भोजन की तलाश में निकली
काश! वो यह तलाश नहीं करती
बेचारी जानवर थी ना उसे कहां मालूम था
यहां भूल करना गुनाह है
काश! वो यह भूल नहीं करती
बेजुबान हथनी थी इंसानी फितरत पर विश्वास कर बैठी
काश! वो इंसान होती तो इंसानों पर विश्वास नहीं करती

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31 MAY 2020 AT 15:37

उसके हिस्से की मोहब्बत उसे लौटा आया हूं

छोड़ कर सारे नशे, मयखाने लौट आया हूं

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30 MAY 2020 AT 17:32

एक रात तुम चांद और जिंदगी चांदनी लग रही थी
आज सारा आसमां बिखरा बिखरा सा लग रहा है
यह सिर्फ तेरी रुसवाई का असर है
या मैं सचमुच तबाह हो रहा हूं

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15 MAY 2020 AT 21:21

भूखा पेट सूखा बदन लिए हर रोज निकलता हूं
दो जून भोजन के लिए शहर भर में भटकता हूं
जिन आलीशान अट्टालिकाओं में बसते हो तुम
उनकी निवों को अपने खून से सिंचता हूं

सर्द रात, गर्म दोपहर अविराम श्वेत रक्त बहता हूं
पाषाण बाहु के बल पर राष्ट्र निर्माण करता हूं
परिस्थितियां मुझे कर्म पथ से भटका नहीं सकती
पर कुनबे की भूख देखकर दहल जाता हूं

चुनाव मंच के इतर हुक्मरानों को नज़र नहीं आता हूं
मैं एक दिन का वो राजा हूं जो शेष वर्षों तक गुलामी करते पाया जाता हूं
ग़रीबी अभिशाप नहीं है मेरे वजूद के लिये
मगर मेहनत करके भी खुद को ठगा हुआ सा पता हूं

अर्थ जगत का पहिया हूं नंगे पैर धकेला जाता हूं
तुम्हारे बदन ढकता हूं नंगी हड्डियों पर चमड़ी की शॉल ओढ़ता हूं
दिल्ली बंबई कलकत्ता मद्रास हर जगह देखते हो मुझे
सयानों की भाषा में मजदूर कहलाता हूं




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14 MAY 2020 AT 9:22

रोने के लिए एक इश्क़ ही जरूरी नहीं
दर्द और भी बहुत है इस जिंदगानी में

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8 MAY 2020 AT 16:38

तुम मुझे तन्हा कहो या कहो मग़रूर,

सच तो यह है कि तुम्हारी कमी खल रही है।

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6 MAY 2020 AT 18:56

बारिश

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