लोग करते हैं बात खुले में सैर की, खुली खिड़की से ही बस मैंने आसमान देखा है। सुनते हैं बात बड़े-बड़े शहरों की, दो चार घरों में ही मैंने जहान देखा है। लौट आते लगाके बाज़ी परिंदों से, अफ़सोस.. दरीचे से ही आज तक महताब देखा है...
प्राणों की प्राण प्रतिष्ठा हुई है, हर उर की पूर्ण प्रतीक्षा हुई है। कोटि जन उल्लास में हर्षित हैं, चर अचर आज सब पुलकित हैं। रोम रोम रम गए राम,रघुनंदन का अभिनंदन है सात्विकता, सकारात्मकता का हर हिय में आज स्पंदन है...
कहाँ, कब उलझते हैं हम अपने विचारों में? हमारे द्वन्द्व तो होते हैं अपने और औरों के विचारों से, जहाँ चाहते हैं हम दूसरों को गलत सिद्ध करना, पर अनमने ढंग से थमा देते हैं बाजी दूसरों को एक अनकही बात और 'शायद' कभी खत्म होनें वाले इन्तजार के साथ हो जाते हैं मौन कर दिए जाते हैं स्थगित शब्दों के बाण क्योंकि होती है प्रतीक्षा एक वक्त बाद... वक्त स्वयं देगा जवाब..