पहचान किसी की करना आसान नहीं है
इंसान के लिबास में इंसान नहीं है
हो गया जरूरी पूछना अब नाम सभी का
दर पर आया हर बंदा मेहमान नहीं है
रोड़ भी हो सकती है या खेल का मैदान
जहाँ लाश बिछती केवल शमशान नहीं है
गवाही ये कहती है बेईमान है ईमान
हैवानियत शर्मिंदा पर हैवान नहीं है
ये कैसी बर्बरता है और कैसा है इंसाफ़
कभी-कभी लगता है भगवान नहीं है
पहचान किसी की करना आसान नहीं है
इंसान के लिबास में इंसान नहीं है
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।। न किञ्चित शाश्वतम् ।।
।। आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः ।।
Let noble tho... read more
अगला जनम
बस झूठा दिलासा है...
सुनो! हम बिछड़ गए हैं...
चिरकाल के लिए....-
कौन है यहाँ?
मुझे किसने आवाज़ दी?
बता दो उसे... मैं अब इस पते पर नहीं रहता!
बस कभी कभार जब सब अधूरा और झूठा लगने लगता है तो चला आता हूँ यहाँ....
ना.. ऐसा भी नहीं है कि यहाँ आकर पूर्णता प्राप्त हो जाती है, पूर्णता तो अब वहीं मिलेगी... ख़ैर यहाँ आने का मकसद होता है कि खुद को थोड़ी तसल्ली मिल जाती है कि चलो मैं अकेला नहीं हूँ.. कुछ और भी हैं ..
"भटकते हुए देवता"..
अच्छा चलता हूँ, फिर मुलाक़ात होगी... भटकते हुए..!!-
ना आसान जिंदगी, ना ही ताज चाहता हूँ
मैं ज़िन्दगी को अपने, अब पास चाहता हूँ
ना शांत सी नदी, ना ही बाढ़ चाहता हूँ
ठहराव चाहता हूँ, पहाड़ चाहता हूँ
कहानियाँ बहुत हुयीं, मैं किस्सा चाहता हूँ
लौटकर मैं जाऊँ तो मेरा हिस्सा चाहता हूँ
हाँ जानता हूँ मुझको, हासिल नहीं हुआ तू
एक आस चाहता हूँ, एक काश चाहता हूँ
बेवजह सा बजता एक साज चाहता हूँ
मैं आज ही में अपना, अब आज चाहता हूँ-
जाने कैसी होगी वो जगह जहाँ शाम नहीं होती..
शायद अब वहीं रहता है, जो हर शाम हाल पूछता था-
मुझे बस पढ़ना हो तो मिरा लिखा पढ़ना
समझना वो, जो मैं लिख नहीं पाया-
अब क्या पूछते हो कि कितना आहत हुआ
मौन प्रमाण है कि सीमाएं लांघी जा चुकीं हैं-
मुझको आवारा कहते हो! कुछ तो शरम करो
घर से बाहर जाने वाली औलादों पर नज़र रखो-
सुबह के 11:00 बजे हैं, सोमवार का दिन है और मैं ऑफिस में keyboard पर पत्थर तोड़ रहा हूँ खट खट खट खट खट खट..
तभी पास में पड़े फ़ोन की घंटी सुनाई दी
मैंने बिना screen देखे फ़ोन को हाथ में लिया और तुरंत....
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कई मरहमों के बाद ज़ख्म भर तो गया
निशाँ ताउम्र के सही.. बंदा घर तो गया-