एक गुलाब बाजू में आकर बोला है
क्यों इतने सुर्ख़ हो गए हो समद
शायद तुमको भी पसंद आई मोहब्बत-
सुनहरे ख़्वाब लिए वो घर ने निकला
याद आया वादा जो था अगला पिछला
याद आईं उसको मां की बातें
याद आईं टपकती छप्पर की रातें
याद आए वो सारे बर्तन जो बारिश में
खाने से ज़्यादा पानी रोकने में इस्तेमाल हुए
याद आईं वो मोमिया ( प्लास्टिक) भरने पर
जिसे बारी बारी खाली करते
डर ने कहीं बारिशों में फट न जाए
बस यूँ ही दिन रात याद आए बारिश के
अब गांव की दहलीज़ पर फिर खड़ा था
छप्पर नहीं अब कहीं धरा था
थूनी भी तबेलों की मुड़ गईं थीं
तरक्की घरों की छत में रच गई थी
हर तरफ़ मोबाइल प्राणी व्यस्त था
किसी के झूठे वादों के पहाड़ से दबा
खिलखिला रहा क्यों.. निकल नहीं पा रहा
सोच उसकी रील जैसी हुई जाती
क्षणिक सुख में जवानी नालियों में नहीं जाती
कुछ नग्न तस्वीरें फिर परोसी गईं ताकि और
नालियों में यौवन बह निकले..
बस अब मैं वो दर्द ए जवानी और इश्क़
को शायद घूरती निगाहों के वक्ष स्थल में
और सरकारें अपने साल इनकी बढ़ती
वासना और व्यभिचार में देख रही थी
गाँव में कोई मटक कर नहीं चलता अब
तरक्की ने डर को पुलिसिया नाम दिया है
अब सगे रिश्ते के बाद सब देह मात्र हैं
मैं उसी बारिश का इंतेज़ार कर रहा हूं..-
ज़िंदगी में दोहरापन आने से सारी सोच खो गई
इंकलाबी ज़ुबां अब सियासत के गलियारे में सो गई
सियासी भूचाल में कोई मुअज़्ज़ज़ नहीं बचा
कैसा खेल जवानी को फंसा है इसने रचा...
मोबाइल के सहारे पोर्न की ज़िंदगी जीते फ्लैट
तरक्की और जदीदियत में खर्राटे लेते हुए रैट
लिबास की अदला बदली से जेंडर तक पहुंची
बाल ही नहीं अब पेट में मर्द के बच्चेदानी पहुंची
दर्द समझना था अगर तो उसको सहारा देते
दिखावे को नहीं उसकी घुटन अपना लेते..
आह! क्या खेल सियासी जदीदी ताजिर ने फैलाया
अब तो फ़ौजी भी छल-छिद्री से दिखे घबराया
हर तरफ सवाल का कोई उत्तर नहीं नज़र आता
हां! इसने क़र्न-हा को मज़हब और सेक्स से भरमाया।
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दस्तक ए बारिश से भीगी हुई रातें
या बयां करूं अश्क से ही तर वाली
निगाह-दार जैसा भीगता हुआ कोई
या आशिक़ सा खड़ा दरीचे में कोई
पस-ग़ीबत से सुनी हुई भीगी रातें
या ख़ुद-फ़िगन की चुनी भीगी रातें
दास्तां हैं तो अजब पर हैं ये हिरमाँ
किसानों के कटी फसल की भीगी रातें
कहीं यौवन पे छनकती हैं भीगी रातें
अख़्तर कहीं विरहा की फ़फकती रातें-
कैसी तरबियत और तालीम
झूठी कसम और खाएं हलीम
हासिल भी कुछ हुआ नहीं
बने फिरते थे शहजादे सलीम-
सोचता हूं दोबारा इश्क़ कर लूँ
मगर पहली शादी ही डरा देती है
( Humour... लिखना ही डर)-
काश! इश्क़ में सिफ़ारिश चलती
सारे सड़क छाप आशिक़ जोड़ों में होते
( It may happen..-