ये समाज और इसकी रिवायतें
सुकून-ओ-आराम सब पर ही दाव लगा आया,
दिल की ख्वाहिशें तमाम, ताक पर चढ़ा आया,
ले जो आया ये पगार मैं, ख़्वाबों की कीमत पर,
इस समाज की नज़रों में अपना कद बढ़ा आया.!
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Quotes|Poetry|Story
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स्याहीकार|Published Author
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रंग छोड़ती स्याही का सहारा ... read more
ऐसे हुआ जैसे
बिखरे हुए लफ्ज़ों को मुसलसल फसाना मिल गया,
इन लबों को हर घड़ी मुस्कुराने का बहाना मिल गया,
सुने से पड़े ख़्वाबगाह में, जैसे फ़िर बहारें लौट आईं,
आँखों को हसीन सपनों का कोई ख़ज़ाना मिल गया,
ज़िंदगी के कोरे पन्नो पर रंग कोई नया सा चढ़ रहा है,
सामान्य से लम्हों को जादुई सा अफ़साना मिल गया,
अलसाई सुबहों को जगाता अब नया सा धुन है कोई,
गुमसुम सी शामों को, गुनगुनाने को तराना मिल गया,
कैसे बयां करे "साकेत" कि क्या हुआ मिलकर आपसे,
ऐसे हुआ जैसे बंजारे को घर मिला ठिकाना मिल गया।
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न हुआ तेरा दीदार आज भी
हवाएँ हँसती रहीं मुझपर, बहारें भी खूब मुस्कुराती रहीं,
तेरे मोहल्ले तक की गलियाँ भी, मखौल मेरा उड़ाती रहीं,
तेरे दीदार को तरसता, ठगा सा खड़ा रह गया मैं आज भी,
बेपर्द हो बार-बार, बेहया खिड़कियाँ भी तेरी तड़पाती रहीं.!
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ये रक़ीब नया–नया है
ये जो तेरे हाथों में गुलदस्ता-ए-गुलाब नया-नया है,
किसीके मोहब्बत का इज़हार-ए-जवाब नया-नया है,
लगता है नया शिकार मिला है तेरी फ़रेबी आँखों को,
मज़लूम बेखबर का अभी इश्क़िया ख़्वाब नया-नया है,
वाक़िफ नहीं है अभी शख़्स वो तेरी अदायगी से शायद,
नशा-ए-इश्क़ है नया, उसके लिए तेरा नकाब नया-नया है,
मदहोशी में अभी डूबा रहेगा नया आशिक़ तेरा कुछ दिनों,
मिला है तू उसे, तेरे आगोश में मिला उसे शबाब नया-नया है,
तेरे खेल से अनजाना रक़ीब, मखौल उड़ाता है "साकेत" का,
होगा उसका हाल भी वही फ़िलहाल उसका रुआब नया-नया है।
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श्रीराम जन्मोत्सव, श्रीरामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएं
हुई है धन्य ये वसुंधरा, धन्य हुआ है ये ब्रह्माण्ड सारा,
अंधकार मिटने लगा, फैलने लगा चहुँ ओर उजियारा,
मृत्युलोक हुआ धन्य और धन्य हुए त्रिलोकवासी सारे,
हुआ फलित पुत्रेष्टि यज्ञ, राजा दशरथ घर रघुराई पधारे,
सज गई है ये सृष्टि नए रंगों में, बज रही है हर ओर बधाई,
बज रहे चहुँ ओर ढोल झूम के, बजे शंख, बजे है शहनाई,
भए हैं प्रकट रामलला, माता कौशल्या फूले नहीं समाती हैं,
देवगण कर रहे पुष्प वर्षा, दसों दिशाएँ देख नहीं अघाती हैं,
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(शेष कविता अनुशीर्षक में पढ़ें)-
ऐ ज़ालिम महबूब मेरे
कब-तक पलकें बिछाऊँ, ये दिल कब-तक जलता रहेगा,
तेरे लौट आने का ख़्वाब मुझे कब-तक यूँ ही ठगता रहेगा,
मैं और रूह मेरी, दोनों यूँ रहेंगे बेचैन चारों पहर, कब-तक,
ऐ ज़ालिम महबूब मेरे! कब-तक नज़रंदाज़ हमें करता रहेगा.!
BY :— © Saket Ranjan Shukla
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चैत्र नवरात्रि आरंभ एवं हिन्दू नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
नया-नया सा भोर है, नई सी हो रही है प्रकृति सारी,
मौसम भी बदले हैं, नएपन से सजी माँ धरती हमारी,
कोंपल फूट रहे नए-नए से, कलियाँ नई-नई खिली हैं,
पतझड़ से बिछड़, माता वसुंधरा यों बहारों से मिली हैं,
हर ओर प्रभाव है नएपन का, पंछी भी नए सुर गा रहे हैं,
बागों में नएपन की है रौनक, पेड़ पौधे भी मुस्कुरा रहे हैं,
बगीचों में आम की मंजरियाँ, फलों का रूप लेने लगी हैं,
लीचियाँ भी अपने मीठे सुगंध से प्रलोभन हमें देने लगी हैं,
शेष कविता अनुशीर्षक में पढ़ें
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यार है तू या पहेली है
तू है आवारगी मेरी, तू ही है मेरा घर भी,
तू ही बेबाकपन मेरा, तू ही है मेरा डर भी,
मुश्किल तू, मयस्सर आराम भी है तुझमें,
तू ही सुनहली धूप, तू ही छाँव-ए-शज़र भी,
निराश रहूँ तुझसे मैं, रहे आस भी तुझसे ही,
तू अंधियारी रात मेरी, तू ही नई सी सहर भी,
ठौर-ठिकाना तू, मुझ राहगीर का फसाना तू,
तू बिछड़ता हुआ मीत, तू ही है हमसफ़र भी,
ऐ हमदम! तू यार है “साकेत" का या पहेली है,
कि तू लगे जिंदगानी मुझे और तू ही ज़हर भी।
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होली की हार्दिक शुभकामनाएं
रंग बिरंगे गुलालों, रंगों के खेल से, रंगारंग बना रहे माहौल,
मुस्कुराहट सबके चेहरों पर और फैली रहें खुशियाँ चहुं ओर,
हर्षोल्लास, धमाचौकड़ी मची रहे मोहल्लों और घर आँगन में,
बरसे रंग हर ओर से ऐसे, जैसे न बरसे हों कभी मेघ सावन में,
मिलें दिल सबके लगाकर गुलाल, भूलें मनमुटाव और मलाल,
मालपुओं से मन हो मीठा, गुझियों, व्यंजनों से सजी रहे थाल,
द्वेष, ईर्ष्या आदि का काला रंग धुल जाए पिचकारी की धार से,
दूर रहे बैर हर मन से, मिट जाए परायेपन का भाव ही संसार से,
शेष काव्य अनुशीर्षक में पढ़ें
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होली की हार्दिक शुभकामनाएं
रंग बिरंगे गुलालों, रंगों के खेल से, रंगारंग बना रहे माहौल,
मुस्कुराहट सबके चेहरों पर और फैली रहें खुशियाँ चहुं ओर,
हर्षोल्लास, धमाचौकड़ी मची रहे मोहल्लों और घर आँगन में,
बरसे रंग हर ओर से ऐसे, जैसे न बरसे हों कभी मेघ सावन में,
मिलें दिल सबके लगाकर गुलाल, भूलें मनमुटाव और मलाल,
मालपुओं से मन हो मीठा, गुझियों, व्यंजनों से सजी रहे थाल,
द्वेष, ईर्ष्या आदि का काला रंग धुल जाए पिचकारी की धार से,
दूर रहे बैर हर मन से, मिट जाए परायेपन का भाव ही संसार से,
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