मैंने ना इस कविता के जरिए एक शहीद की जुबानी लिखी है, जिसने ना अपने देश के लिए अपनी जान कि कुर्बानी दी है, अपनी जान तो कुर्बान कर दी, लेकिन अपनी एक जान से भी प्यारी जान को इस मतलबी दुनिया के बीच छोड़ दिया।और उसका दर्द महसूस करके अपनी पत्नी के लिए उनके विचार मेंने इस कविता के जरिए व्यक्त कीए है की,
जा रहा था सरहद पर जब मैं
तब आखरी बार सुनी थी मैंने उसकी पायल की झनकार वो,
उसने मद्धम से आवाज में कहा था की याद रखना तुम्हारे इंतज़ार में खड़ी है वो,
लेकिन मेरी पहली मोहब्बत तो मेरे देश की मिट्टी थी ना,
याद था...याद था की वह इंतजार करते करते थक गई होगी,
लेकिन फिर भी उसने निंद से अपना मुंह यु मोड़ लिया होगा ना...
वो मुझे ना लाल जोड़े में पसंद थी...या यूं कहूं बेहद पसंद थी,
साथ-साथ उसके चेहरे की वो दिलकश मुस्कुराहट और उसके चुड़ी यो की आवाज मेरे दिल का सुकून थी ना...
तो मेरा इस जहां के लोगों से यह सवाल है कि...,
उसके नाज़ुक से हाथों को बेदर्दी से पकड़कर तोड़ी हुईं चुड़ी के कांच मुझे पुरसुकून कैसे कर सकते थे??
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