कल कौड़ियों के भाओ बिकुंगा बाज़ार में मैं,
चंद सिक्को से मोल मेरा तुम भी लगा लेना-
हसरतें
AuthorMehr@gmail.com
मैं लिखता तुझे बेशक ग़ज़ल की तरह ,
है अफ़सोस मेरे हालात कुछ फ़ज़ल की तरह
क़ुरबत थी बेहद न थी यार की रज़ा,
रहे कई इमरोज़ राहों में प्रीतम की तरह
चिराग बुझे रहे क्या अँधियों की सज़ा,
हैं फरेब मेरी लकीरों में ग़ालिब की तरह
बेशक थी रुस्वाई तेरे दर पे उस रोज़ गुनाह,
मंज़ूर न थी रुखसती मुझे राहत की तरह
मेरा इश्क़ है मयस्सर तुझे रातों की जगह,
है आफ़ताब कम आशियाने में अख्तर की तरह
है मंज़ूर तेरी हर खता बचपन की तरह ,
याद आती है माँ मुझे मुनव्वर की तरह
सिलवटें पढ़ोगे तो मिलेंगी हसरतों की वजह,
मैं रखता हूँ नज़्म सीने में गुलज़ार की तरह
- मैहर
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वो जो अखबारों में लिखा है सच कहाँ है
तुम तो यहाँ हो गुनेहगार कहाँ है
वो जो बोल रहे हैं वो तो गूंगे हैं
ये सच बोलने वाला किरदार कहाँ है
वो जो महफ़िल में हैं सभी मुखालिफ हैं
हमसे पूछो वो अकेला राज़दार कहाँ है
वो जो हैं यहाँ फ़ना हैं ये ख्वाब हैं
इश्क तुम्हारा अब इतना असरदार कहाँ है
वो जो मौजूद थे मौजूद हैं बेदाग़ हैं
पर जो गायब है वो पहरेदार कहाँ है
- मैहर
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कल उस हादसे में क्या हुआ कुछ याद नहीं,
आखिर मंज़र में शायद मुझे एक बोतल खून चढ़ा रहे थे,
आज अजीब सी हलचल है इस बदन में,
कतरा कतरा बेचैन है और कोलाहल मचा है
ये नया खून बहुत अलग है,
मसलन, गली के मोड़ पे मंदिर है और मस्जिद भी,
एक कतरा मंदिर को देखता है तो दूसरा मस्जिद की ओर झांकता है,
जब माथे पे तिलक लगाऊं तो एक कतरा सर पे टोपी को पुकारता है,
दोनों हाथ सजदे में नहीं उठ रहे मेरे,
जुबां पे कभी अल्लाह कभी भगवान् बैठा है,
कुरआन ओर गीता भी बट रहे हैं मुझमे कहीं,
एक अजीब कश-म-कश, एक अजीब जंग सी छिड़ गयी है खून में,
और बगावती हो रहा है हर कतरा मेरे मन का,
इसमें तालमेल बैठाने में फिर सादिया लगेंगी,
न जाने कब कौन सा कतरा बाघी हो जाए ...
न जाने कब ...एक सरहद और बन जाए
-मैहर
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एक सवाल की खातिर कितने जवाबों का क़त्ल किया तुमने ,
कितने जवाबों को कटघरे में मारा तुमने ,
कितने अरमानों को कुचला कितनी ख्वाइशों को रौंदा तुमने ,
और कितनी हसरतें दब गयी तुम्हारी आरज़ूओं के तले,
अंदाजा है तुम्हे उन ख्वाबों का जो हर बीती सांस के साथ पैदा हुए थे ?
कितनी बार कुचला है तुम्हारी सोच ने उन्हें ,
वो सिसकी सुनी थी तुमने ,वो आखिरी सिसकी...
मचली हुई, तड़पती हुई , गिड़गिड़ाती , कांपती पुकारती ..तुमसे फरियाद करती सिसकी
वो आखिरी सिसकी जिसने मेरे रौंटे खड़े कर दिए,
आज सांस आखिरी है मेरी तो सोचा बता दूँ तुम्हे ..
एक सच है जिससे वाकिफ करा दूँ तुम्हे ..
हाँ वो बेटी थी "मैहर"...मेरी कोख में तुम्हारी बेटी
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हदों और सरहदों के दायरे तो तुम ही ने तय किये थे,
तुम्ही ने बनायी थी रेखाएं तहज़ीब और अदब की,
हम दोनों के पाले का हिस्सा भी सीमित किया था तुमने,
मन में होड़ तो बहुत है तुझे अपने पाले में खींच लूँ,
उचक के कभी तेरे पाले में आ जाऊं,
पर ये लकीरें बहुत गहरी हैं, मैं क्या अब मेरी सोच भी तुम तक नहीं पहुंच पाती,
खैर...
इंतज़ार करूँगा मैं की कब ये मट्टी पे बनी लकीरें कुछ फीकी पढ़ जाए,
या फिर कब मैं इन लकीरों की तरह मट्टी बन जाऊं !
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हदों और सरहदों के दायरे तो तुम ही ने तय किये थे,
तुम्ही ने बनायी थी रेखाएं तहज़ीब और अदब की,
हम दोनों के पाले का हिस्सा भी सीमित किया था तुमने,
मन में होड़ तो बहुत है तुझे अपने पाले में खींच लूँ,
उचक के कभी तेरे पाले में आ जाऊं,
पर ये लकीरें बहुत गहरी हैं, मैं क्या अब मेरी सोच भी तुम तक नहीं पहुंच पाती...खैर ,
इंतज़ार करूँगा मैं की कब ये मट्टी पे बनी लकीरें कुछ फीकी पढ़ जाए,
या फिर ....कब मैं इन लकीरों की तरह मट्टी बन जाऊं !
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सोचती हूँ…
वो पकी हुई रोटियां कुछ जल गयी थी तो क्या हुआ,
वो नींद कभी बर्तनो की आवाज़ से खुल गयी थी तो क्या हुआ,
कभी चाय फीकी हो जाये तो स्वाद कम थोड़े होता है,
और चादरों का रंग तकिये से न मिले तो क्या फर्क पड़ता है,
देर होना बुरी बात है पर देर हो जाती है समझना था मुझे,
रूठना उसकी फितरत है, हर बार मैं ही मनाऊं,
क्या सच में फर्क पड़ता था इससे ?
सोचता हूँ…
रात अकेले छत पे पुराने नग्मे न सुने तो क्या हुआ,
एक बार दोस्तों के संग दो चार जाम न बने तो क्या हुआ,
दरीचे से आती रौशनी ख्वाबो में खंडन डालती है,
पर कुछ दिन परदे और न पड़े तो क्या हुआ,
मेज़ और बिस्तर में बहुत अंतर है, समझना था
कभी अखबारों से ज़्यादा उनकी आँखें पड़ना था,
एक शाल में दो लोग आ सकते हैं कौन सी बड़ी बात है,
एक दिल में दो लोग बस जाए…बस इतना ही समझना था
क्या सच में ये इतना मुश्किल था?
- मैहर
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