دریا جو خواہشات کے بہتے ہیں عمر بھر
انسان اِس میں تیرتے رہتے ہیں عمر بھر
کِس نے کہا کہ عقل کا رشتہ ہے عمر سے؟
کچھ لوگ بےوقوف ہی رہتے ہیں عمر بھر
جو بھی برا لگے اُسے کہہ دو زبان سے
خاموش رہنے والے ہی سہتے ہیں عمر بھر
دِل کے بجائے سوچتے ہیں یہ زبان سے
جو منہ میں آ گیا وہی کہتے ہیں عمر بھر
احساس جن کو ہوتا ہے اوروں کے درد کا
آنسو اُنہی کی آنکھ سے بہتے ہیں عمر بھر
کچھ تو بیان کر لیں زباں سے صداقتیں
باقی تو خیر! شعروں میں کہتے ہیں عمر بھر-
First Book : Hum-khayaal
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दरिया जो ख़्वाहिशात के बहते हैं उम्र भर
इंसान इसमें तैरते रहते हैं उम्र भर
किसने कहा कि अक़्ल का रिश्ता है उम्र से
कुछ लोग बेवकूफ़ ही रहते हैं उम्र भर
जो भी बुरा लगे उसे कह दो ज़ुबान से
ख़ामोश रहने वाले ही सहते हैं उम्र भर
दिल के बजाए सोचते हैं ये ज़ुबान से
जो मुंह में आ गया वही कहते हैं उम्र भर
एहसास जिनको होता है औरों के दर्द का
आंसू उन्हीं की आंख से बहते हैं उम्र भर
कुछ तो बयान कर लीं ज़ुबाँ से सदाक़तें
बाक़ी तो ख़ैर! शेरों में कहते हैं उम्र भर-
इन आंखों में मोहब्बत जागती है
मिरे अंदर का शायर सो रहा है
कई ग़ज़लें यहां अटकी हुई हैं
मिरा सर भारी भारी हो रहा है-
نظم : "Slothfulness"
جس کے جیون میں آ گیا آلس
اُس کے سپنوں کو کھا گیا آلس
خواہشیں بھی جھلس گئیں جس میں
ایسی بجلی گرا گیا آلس
وہ جو ناکام ہونے والے ہیں
اُن کو پہلے دیا گیا آلس
وقت رہتے سنبھل گیا جو بھی
دُور اُس سے چلا گیا آلس
جاتے جاتے کسی کی آنکھوں سے
سارے پردے ہٹا گیا آلس
رات کے دو بجے ڈنر کر کے
ناشتے میں پیا گیا آلس
زِندگی میں ہے کیا نہیں کرنا
رَفتہ رَفتہ سکھا گیا آلس
کل صداقت نے ایک نظم کہی
اور پھر اُس کو آ گیا آلس-
नज़्म : "Slothfulness"
जिसके जीवन में आ गया आलस
उसके सपनों को खा गया आलस
ख़्वाहिशें भी झुलस गईं जिस में
ऐसी बिजली गिरा गया आलस
वो जो नाकाम होने वाले हैं
उनको पहले दिया गया आलस
वक़्त रहते संभल गया जो भी
दूर उससे चला गया आलस
जाते जाते किसी की आंखों से
सारे पर्दे हटा गया आलस
रात के दो बजे डिनर करके
नाश्ते में पिया गया आलस
ज़िंदगी में है क्या नहीं करना
रफ़्ता रफ़्ता सिखा गया आलस
कल सदाक़त ने एक नज़्म कही
और फिर उसको आ गया आलस-
پھر تُجھے یاد کر رہا ہے کوئی
وقت برباد کر رہا ہے کوئی
طائرِ جاں کو قیدِ ہستی سے
آج آزاد کر رہا ہے کوئی
شہرِ دِل کی اُجاڑ بستی کو
پھر سے آباد کر رہا ہے کوئی
ہے تعجب، بجائے مرہم کے
زخم ایجاد کر رہا ہے کوئی
وقت اُس پر بھی ہے کڑا لیکن
پھر بھی امداد کر رہا ہے کوئی
آپ اپنا بھی کُچھ خیال رکھیں
مجھ سے فریاد کر رہا ہے کوئی
بارہا میرے ذہن میں آ کر
دِل کو ناشاد کر رہا ہے کوئی
اے صداقت تمہارے کہنے کو
حسبِ اِرشاد کر رہا ہے کوئی-
फिर तुझे याद कर रहा है कोई
वक़्त बर्बाद कर रहा है कोई
ताइर-ए-जां को क़ैद-ए-हस्ती से
आज आज़ाद कर रहा है कोई
शहर-ए-दिल की उजाड़ बस्ती को
फिर से आबाद कर रहा है कोई
है तअज्जुब! बजाए मरहम के
ज़ख़्म ईजाद कर रहा है कोई
वक़्त उस पर भी है कड़ा लेकिन
फिर भी इमदाद कर रहा है कोई
आप अपना भी कुछ ख़्याल रखें
मुझसे फ़रियाद कर रहा है कोई
बारहा मेरे ज़हन में आ कर
दिल को नाशाद कर रहा है कोई
ऐ सदाक़त तुम्हारे कहने को
हस्ब-ए-इरशाद कर रहा है कोई-
न ये कोई कथा है न ही कहानी है
हिंदी भाषा, भाषाओं की रानी है
औरों ने भी बात हमारी मानी है
सहज सरल है और मधुर ये भाषा है
जोड़ेगी संसार को इक दिन आशा है
हम सब ने इसके विस्तार की ठानी है
दूसरी भाषाओं पे हैं उपकार किए
Curry, Veranda, Shampoo जैसे शब्द दिए
यानी हिंदी भाषा जो है दानी है
दफ़्तर में जब भी हिंदी में डाक आई
मेरे दिल ने शौक़ से ली है अंगड़ाई
क्योंकि ये भाषा जानी पहचानी है
तुम भी सदाक़त हिंदी में इक गीत लिखो
जो भाषा से डरे उसे भयभीत लिखो
भाषाओं का प्रेमी भी तो ज्ञानी है-
فِکر ہموار کیوں نہیں ہوتی؟
بات میں دھار کیوں نہیں ہوتی؟
دِن تو گلبار ہوتا ہے اپنا
رات گلزار کیوں نہیں ہوتی؟
چیخ اک بے زبان بچّے کی
عرش کے پار کیوں نہیں ہوتی؟
تیز طرّار باپ کی بیٹی
تیز طرّار کیوں نہیں ہوتی؟
ہوتی ہیں شب بیداریاں ہر روز
قوم بیدار کیوں نہیں ہوتی؟
ایک ٹھوکر ہی تو لگی ہے ابھی
پھر سے تیار کیوں نہیں ہوتی؟
اِس کو سینچا ہی نفرتوں میں گیا
نسل بیکار کیوں نہیں ہوتی!
شام سے آپ ساتھ تھے میرے
رات گلزار کیوں نہیں ہوتی!
اب حیا آنکھ میں صداقت کی
کیا پتہ یار کیوں نہیں ہوتی!-
फ़िक्र हमवार क्यों नहीं होती?
बात में धार क्यों नहीं होती?
दिन तो गुलबार होता है अपना
रात गुलज़ार क्यों नहीं होती?
चीख़ इक बेज़बान बच्चे की
अर्श के पार क्यों नहीं होती?
तेज़ तर्रार बाप की बेटी
तेज़ तर्रार क्यों नहीं होती?
होती हैं शब्बेदारियाँ हर रोज़
क़ौम बेदार क्यों नहीं होती?
एक ठोकर ही तो लगी है अभी
फिर से तैयार क्यों नहीं होती?
इसको सींचा ही नफ़रतों में गया
नस्ल बेकार क्यों नहीं होती!
शाम से आप साथ थे मेरे
रात गुलज़ार क्यों नहीं होती!
अब हया आँख में सदाक़त की
क्या पता यार क्यों नहीं होती!-