जाते-जाते ठहर जाते तो अच्छा होता
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फिसलती जाती है हर याद
रेत की तरह
सरकता जाता है वक़्त
रेशम की तरह
कुछ रूकता ही नहीं
कुछ ठहरता ही नहीं
रेलगाड़ी की तरह
हर लम्हा आगे बढ़ता जाता है
दिनों,महीनों, सालों में...
तब्दील होते हुए
ज़रा सी फुर्सत नहीं
किसी के पास की उसे देखा जाए
महसूस किया जाए
सूरज-चॉंद सभी रफ़्तार से
भागे चले जा रहे हैं
हवाएं जाने कैसा पैगाम देकर
आगे बढ़ती जा रहीं हैं।-
कुछ दिन पहले की बात है
गांधारी की तरह ऑंखों पर...
बाॅंधे काली पट्टी
हुआ करता था कानून अन्धा
हॉं... ये सही है कि...
एक भेदभाव रहित समाज-निर्माण को
बाॅंध रखी थी उसने वो पट्टी
लेकिन बढ़ते अन्याय और भेदभाव की
खाई को गहरा होता देख..
समाज ने करार दे दिया उसे 'अन्धा'
लेकिन अब जब समाज के कटु बाण से आहत हो
उतार फेंकी है उसने अपनी ऑंखों की पट्टी
लोगों को विश्वास दिलाने को
अन्धा-युग समाप्त हुआ जाता है
तो देखो अब कानून...
अपनी उज्ज्वल ऑंखों से
देखता है कितना और क्या-क्या।-
कहाॅं और कब जागे संवेदना भी
आंकड़े ही जब हर ओर मर रहे हैं
हर दिन की ताज़ा ख़बर
"बस, ट्रेन या फलां हादसे में सौ मरे और पचास गम्भीर..."-
लग गया है दिल हाय!ये किस ख़ुराफ़ात में
रो रहा है हर घड़ी इस सिरफिरी बरसात में-