साँझ🕊️   ("साँझ" यदुवंशी)
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Joined 20 July 2021


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15 JUN AT 17:52

अपने लहू से
सींचकर कली को,
फूल बनते ही
डाली से जुदा
कर देता है...
बाप से बड़ा कोई
दानी नहीं साहब,
कलेजे के टुकड़े को
अपने ही हाथों से
विदा कर देता है।

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14 JUN AT 16:30

मत पूछ मेरे चेहरे पर क्यूँ ये मायूसी है,
मेरे कबीले का नाम ही साहब उदासी है।

ऐसे में भी अगर मैं यहाँ अब मुस्कुराऊँगी,
तो अपने ही कबीले की मुजरिम कहलाऊँगी।

वो दौर गया,जब तेरी गलियों में आना जाना था,
ढलती साँझ का तेरी बाहों में ठिकाना था।

तुझसे रिहा होकर अब तक, उड़ नही पाई हूँ मैं,
तेरी गिरफ्त में ही अपनी उड़ान भूल आई हूँ मैं।

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12 JUN AT 17:15

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12 JUN AT 12:00

विरक्त मन की यात्रा...

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10 JUN AT 16:47

"लम्हा"

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6 JUN AT 13:38

तेरी इन बाहों के घेरे,
चाहूंँ मैं सांँझ सवेरे!

तेरे मिलन की खुशी,
छलकी है आंँखो से मेरे!

ये गुलशन गुलाबी हुआ,
खिले हैं भंँवरों के चेहरे!

महकी फिजाएं भी हैं,
मेहरबां आने से तेरे!

मेरी रातें भी रौशन हुई,
छट गए सारे अंधेरे!

पलकों में छुपा लूंँ तुझे,
बिठा दूंँ ख़्वाबों के पहरे!

मेरी सांँसों की डोरी सनम
बंधी है सांँसों से तेरे!

होंगे ना हम तुम जुदा,
लेंगे सातों वचन और फेरे!

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5 JUN AT 15:36

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2 JUN AT 22:25

ये मेरी नींद के हाथ कभी पीले क्यों नहीं होते,
क्यों पलकों की दहलीज से लौट जाती हैं...
मेरे ख़्वाबों की बारातें...😒

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31 MAY AT 20:40

तेरी सांसों में उतर के
तेरी धड़कनों को
रवाँ कर दूँगी,
तू मुझे होठों से तो लगा,
मैं तेरी ज़िंदगी
तबाह कर दूँगी।

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31 MAY AT 13:52

चूसती है लहू ज़िगर का, मेरी आँखें भी निचोड़ कर पीती है...
इस कलम से फिर भी मेरे लफ़्ज़ों की तिश्नगी क्यों नहीं बुझती है।

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