कौन पोंछेगा रुखसार से अब मेरी आँखों का पानी,
कर लिए जज़्बात पत्थर के, सह ली ये पीर पुरानी।-
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ज़िंदा अपने ज़मीर को अक्सर वही बचा पाया है
नेकी पे चलके जो ... read more
ना वो अल्लाह, ना राम, ना ओंकार है,
रंगों से भी उसका ना कोई सरोकार है,
वो कूज़ा-गर है अपने ही भीतर का ब्रह्म,
वो दिखता नहीं है, वो बस निराकार है।-
धरती के आले के नीचे,
चाँद और सूरज की दूरी सा,
मैं ढू़ँढती रहती हूँ उसको
जो घूमता मुझमें धूरी सा।
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रात गए वो आता,
खूब मुझे सताता,
गालों को काटे अक्सर,
कौन सखी साजन? ना सखी मच्छर!-
दूर भी तो जाते नहीं हो तुम हमसे,
रास आती नहीं तुझे मेरी सोहबत भी।
ये कैसा रिश्ता है तेरे और मेरे दरमियां
फासले भी बहुत हैं और मोहब्बत भी।-
कितनी बोझिल सी लग रही है आज ये शाम-ए-गम,
भीतर दबा है जैसे तूफ़ान कोई, और आँखें हैं नम,
ना पूछो तुम हमसे हमारी बेबसी का राज़ यारो,
हमने खुद से भी ना कही कभी दास्तान-ए-गम।-
थे सपने कुछ चुराए मैंने,
अपनी हसरतों के डेरे से,
ख्वाईशें जब थमने लगी तो
रह गए ख्व़ाब अधूरे से।
कुछ रंग हसीन चुराए मैंने
इन तितलियों के पंखों से,
ज़िंदगी जब बेरंग हुई तो
रह गए शबाब अधूरे से।
क़लम को साथी बनाया मैंने
कुछ एहसास चुन कर कोरे से,
दास्ताँ जब लिखने लगी तो
रह गए अल्फाज़ अधूरे से।
कुछ सवाल संजीदा पूछे मैंने
मेरी किस्मत की लकीरों से,
कर्मों पर जब नज़र पड़ी तो
मिले कुछ जवाब अधूरे से।-