साँझ   (साँझ)
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Joined 6 December 2019


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16 FEB 2021 AT 20:42

तुझको देखूँ तो ये नज़रें ज़रा भी तुझसे नहीं हटती हैं
तुझको सोचूँ तो ये निगाहें तेरी आरज़ू में ही मचलती हैं
नादान हैं ये कहने वाले कि दिल सिर्फ़ सीने में ही होता है
तुझको लिखूं तो ये मेरी उंगलियाँ भी धड़कती हैं


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12 FEB 2021 AT 18:17

ना गम से, ना ख़ुशी से, ना इंकार से डर लगता है
मैं वो नींद हूँ, जिसे ख़्वाब से डर लगता है

नहीं मालूम कि कब ज़िन्दगी में सैलाब आ जाये
मैं वो ज़मीन हूँ जिसे, बरसात से डर लगता है

झुलस जाते हैं चेहरे यहाँ ख़ूबसूरती के नाम पर
मैं वो ज़िस्म हूँ जिसे श्रृंगार से डर लगता है

डर नहीं मुझे कि कब टुकड़ों में बिखर जाऊं
मैं वो आईना हूँ जिसे किरदार से डर लगता है

गम नहीं मुझे कि इश्क़ मुकम्मल ही ना हुआ
मैं वो लफ्ज़ हूँ जिसे इज़हार से डर लगता है

देखा है लोगों को इश्क़ की आगे में जलते हुए
मैं वो जज़्बात हूँ जिसे प्यार से डर लगता है

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10 FEB 2021 AT 13:59

कुछ लोग अपनी हर उलझन को यूँ ही सुलझा जाते हैं
मगर कुछ उनमें ही उलझकर खुद को उलझा जाते हैं
ज़रूरी नहीं होता कि हर शख्स टूटकर ही बिखरा हो
कुछ फूल तो शाखों से जुड़े होकर भी मुरझा जाते हैं


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9 FEB 2021 AT 21:27

अपनों के जज़्बातों के हमराज़ हम भी बनते हैं
मगर उसे खुद बयां करने से ऐतराज़ हम भी करते हैं
होते होंगे लोग यहाँ लफ़्ज़ों के बादशाह मगर
अपनी ही खामोशियों पर राज हम भी करते हैं

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16 MAR 2021 AT 18:36

इज़्ज़त ....
शब्द एक, दृष्टिकोण अनेक
अगर किसी स्त्री के तन को कोई ज़बरन छू ले
या उसे अपनी हवस का शिकार बना ले
तो हमेशा यही क्यूं कहा जाता है कि
सिर्फ़ उस स्त्री की ही इज़्ज़त चली गयी
और पुरुष........
क्या उस पुरुष की इज़्ज़त नहीं जाती ?
यदि स्त्री की इज़्ज़त को उसके तन में समाहित माना जाता है
तो पुरुष का शरीर इससे अछूता क्यूं रह जाता है
या फिर पुरुष के तन में उसकी इज़्ज़त रहती ही नहीं है
या फिर उसकी इज़्ज़त उसके शरीर में ना रहकर कहीं और रहती है

अकसर खबरों में यही सुनाया और दिखाया जाता है कि
युवक द्वारा युवती की इज़्ज़त लूट ली गयी,
तो क्या सिर्फ़ उस स्त्री की ही इज़्ज़त लूटी जाती है,
क्या उस स्त्री के समक्ष उस पुरुष की इज़्ज़त नहीं जाती,
अगर इज़्ज़त शरीर में ही समाहित होता है
तो इज़्ज़त तो दोनों की ही जाती है
फ़र्क तो यही होता है कि
एक की ज़बरन लूटी जाती है
तो दूसरा अपनी मर्ज़ी से लुटा आता है
अगर इज़्ज़त जाने से स्त्री की पवित्रता चली जाती है
उसे इस समाज में उसकी पवित्रता के साथ स्वीकार नहीं किया जाता,
तो जिसने उस स्त्री की इज़्ज़त को तारतार कर दिया
उसे इसी समाज के लोग इतनी आसानी से क्यूं स्वीकार कर लेते हैं
उसके कुकर्म को इसी समाज के लोग इतनी जल्दी क्यूं भूल जाते हैं
जबतक इस ज़मीनी स्तर पर स्त्री - पुरुष समान नहीं हो सकते
तबतक दोनों में समानता की बातें करना व्यर्थ जान पड़ता है

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9 FEB 2021 AT 17:33

शीशे तो टूटकर अपनी कशिश बयां भी कर जाते हैं
दर्द तो उन पत्थरों का है, जो टूटने के काबिल ही नहीं

अकसर भीड़ में कह जाते हैं लोग जज़्बात अपने दिल के
जम जाते है एहसास उनके, जो उस भीड़ में शामिल ही नहीं

खूबसूरत लगती है ज़िन्दगी अपने मुश्किलों से किनारे आकर
भटक जाते हैं वो जिनके समंदर का कोई साहिल ही नहीं

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16 JAN 2021 AT 22:22

जलती रही शमा हरपल अँधेरे का दामन थामकर
जिसका था इंतज़ार वो परवाना कभी आया ही नहीं

बेसब्र हो चली थीं राहें जिसकी तलाश में अरसे से
सफ़र बीतता चला गया वो मुकाम कभी पाया ही नहीं

बोझिल होने लग गयी थीं पलकें नींद के आग़ोश में
देखी थीं जिसकी राह वो ख्वाब कभी आया ही नहीं

दबे पावं आ चली थी दिल में खनक एक नाम की
मगर दिल से ज़ुबां तक वो नाम कभी आया ही नहीं

आहिस्ता-आहिस्ता चलती रही कश्ती इस ज़िन्दगी की
तमन्ना रही थी जिसकी वो साहिल कभी पाया ही नहीं

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29 DEC 2020 AT 18:23

ताल्लुक लोगों से बढ़ने लगें हमारे
इसलिए हमने शौक बुरे पाल लिए,
वर्ना बिना ऐब के कोई
महफ़िलों में बुलाता नहीं था

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29 DEC 2020 AT 17:23

बढ़ते जा रहे हैं ताल्लुक सबसे मगर
खुदसे रूबरु होने का सफ़र छूटा है क्यूं
खड़े हैं मज़बूती से सबकी नज़रों में मगर
अपने ही जहन में आज कुछ टूटा है क्यूं

चेहरे पर तो दिखती सभी के ताज़गी है मगर
दिल के रिश्तों का ये बाग़ अब सूखा है क्यूं
सुना है कि बेहिसाब प्यार का ये दौर है मगर
कोई अपनों के ही अपनेपन का भूखा है क्यूं

खुशियों का बोलबाला हर तरफ है मगर
लोगों का अश्कों से नाता अब जुड़ा है क्यूं
फैले हैं रिश्ते-नाते अब दूर तक मगर
पास ही किसी के गम को देख मुड़ा है क्यूं

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18 DEC 2020 AT 20:00

कागज़ हूँ मैं, तेरे लिए दिल की किताब बन जाऊं
सुबह हूँ मैं, तेरे लिए खूबसूरत सी शाम बन जाऊं
तेरे इश्क़ ने कुछ इस कदर मुकम्मल कर दिया है कि
शायद मैं भी मिट्टी से, अब मकान बन जाऊं

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