चार दिन की जिंदगी ,चार लोगों की बातें चार कंधों का सहारा या मंच पर चार शब्द अधूरे मकसद ख्वाहिशों की आवारगी में फंस गए हम इंसान इस दुनिया की बेचारगी में फंस गए।
कभी दरख़्त को देखो,तुमसे ज्यादा मजबूत है वो कुल्हाड़ी से डरता नहीं, खुद ही ताबूत है वो। शिकन में जी रहे, सुखन की तलाश में दौड़ना पड़ता है जीत की कयास में। दूसरों को देख अपनी हार ही में फंस गए हम इंसान इस दुनिया की बेचारगी में फंस गए।
भवन में भुवन में निरखते खड़े हैं भगत सब तुम्हारी शरण में पड़े हैं। कलयुग में बदली समय की सुई है माता कुमाता कभी न हुई है।
चली चैत्र नवरात्र की पुण्य बेला है शक्ति उपासक सहज ही अकेला भरो कंठ हमको, दुलारो तनिक तो सहा जाता अब न जगत का झमेला। भरे आस ममता की चूनर छुई है। कि माता कुमाता कभी न हुई है।
नया वर्ष आया है सुनते तो हैं पर नया पुण्य कब तक फलेगा भवानी नए भाग्य का चंद्र कब पूर्ण होगा। नए दिन हो अपनी कथा क्यों पुरानी। बिना भक्ति सांसें भी बोझिल रुई हैं। माता कुमाता कभी न हुई है।
सब अपने भावों को जीते हैं कविता की ओट में। एक अलग संसार बसा करता है योर कोट में।
खुशियों की फुलवारी हो या दुख की बेजा बेलें हों भरी भीड़ में मगन हों या फिर गहरे निपट अकेले हों। लिखते रहते हैं सारे ही होकर घायल चोट में। एक अलग संसार बसा करता है योर कोट में।
तिथि दिवस सारे त्यौहार , हम साथ मनाते हैं हर बार जो भी सपने मन में होते शब्दों से करते साकार। शांति प्रेम संदेश दे रहे जग की लूट खसोट में। एक अलग संसार बसा करता है योर कोट में।
इस जीवन में दुख भारी था यूं तो उससे पहले भी रोना गाना सब जारी था यूं तो उससे पहले भी। लेकिन उसके आने से पहले मन इतना खुश न था दुनिया जीत लिए जाने का इतना तो साहस न था। तो फिर बोलो क्यूं न रोए मन उसके जाने के बाद क्यूं न करता ये मन आखिर दाता से अपने फरियाद लेकिन अब महसूस हो रहा ये सब भ्रम का किस्सा है आना जाना ,खोना पाना सब जीवन का हिस्सा है। कुछ सीख समझ और चलता चल सबसे यूं ही हंस बोल सही वैसे भी तो गुजरे अतीत का होता है कुछ मोल नही।
तुम्हारे जाने से ज़्यादा कुछ बदला नहीं वैसे भी कुछ तार मन के टूटकर बिखरे हैं बस ऐसे ही। झूठी खुशियों के पल गायब हैं अच्छा ही है। एकाकी पन अब भी कायम है अच्छा ही है। तुम्हारे जाते ही मैंने क्या कर लिया तुम समझोगे? घर से दूर जाने का दुस्साहस करलिया तुम समझोगे ? साफ अतीत में एक मैला पन्ना जोड़ लिया तुम समझोगे ? अच्छे खासे जीवन को मैंने किस तरह मोड़ लिया तुम समझोगे? हां तुम थे कभी धड़कन की तरह मगर अब इस धड़कन की आवाज भारी लगती है मुझे सांसें एक दूषित हवा और जिंदगी बीमारी लगती है मुझे।
मुझको सोचा न जाए ये तो कमोबेश तुम भी सोचते होगे। मगर फिर भी जब कभी तुम किसी के साथ खाया करते होगे मैगी मजे से, न चाहते हुए भी एक बार को मुझे तुम सोचते होगे। और जब जब उस राह से गुजरते होगे जहां हम मिले थे दिल को बहलाने के बाद भी मुझे तुम सोचते तो होगे। अब मैं कहती हूं मुझे सोचना बंद करो मेरे कतरे को निकाल दो बाहर अपनी सोच से हह्ह!!! ये क्या क्या सोच रही है! तुम भी सोचते होगे।
ध्यान की अवस्था में बैठी हैं व्याकुलताएं प्रतिदिन साधना चाहती हैं एक मौन और स्वयं को मगर हर बार किसी सहज और सहस्त्रार के बीच आ जाता है अतीत का बोझ जो साधा नहीं जाता और रह जाता है असाध्य ध्यान की इस अवस्था में आत्मा से एकाकार की जगह ,साकार न हुए सपनों का चिंतन जन्म देता है अन्य व्याकुलताओं को फिर वे सब भी बैठती हैं ध्यान में अपनी बहनों के साथ, उन्हें देखते हुए इनसे भी ध्यान साधना न आया। नहीं करते ध्यान सांसारिकता में जीने के लिए यह तो इससे बाहर आने का मार्ग है। व्याकुलताओं से नहीं करवाया जाता ध्यान उन्हें छोड़ दो अनाथ, फिर निकल जाओ अकेले मन की यात्रा पर, जो तुम्हें ले जायेगी ध्यान के हिमालय पर जहां से न तुम्हें संसार दिखाई देगा न देखने की अभिलाषा होगी। पर इन सब में यह भी सोच लेना कि तुम संसार में आए क्यों थे। ध्यान करने !!!