साहित्य और समाज   (साहित्य और समाज)
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Joined 6 August 2020


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मैं घाट पर पड़े पत्थर-सी..
तुम नदी की लहरों का उफान...

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मैंने अपनों को गैर होते देखा है
मोहब्बत को नफ़रत बनते देखा है
सूरज के उगने से उसका ढलना देखा है
मशीन को चलते चलते रुकते देखा है
बच्चे को भागते हुए बूढ़े को थकते देखा है
जीभ का बोलते बोलते लड़खड़ाना देखा है
अपने किस्सों को गैरों को कहते देखा है

हां शायद जीवन के एक- चौथाई हिस्से में मैंने सब कुछ देखा है..

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स्त्री का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है
और स्त्री का विकर्षण उसे गोतम बुद्ध||

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ज़िन्दगी भी मौत से बत्तर हो जाए,
अगर तू खुद का चित्र और चरित्र आइने में देख ले।

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कविता में दर्शन हो सकता है,
किंतु कविता दर्शन नहीं होती।

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अगर सिगरेट पीने से 'तुम्हारे' फेफड़े खराब हो रहें हैं,
तो फिर 'मेरा' चरित्र कैसे??

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जब आप अच्छे होते हैं, तो दूनिया अपका फायदा उठाती है
और जब बहुत ज्यादा अच्छे होते हैं तो आपके अपने|

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There is also a condition to remember that we should forget

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उसने तोहफे में कलम दिया..
शायद वो जानता था कि ,
मुझे मेरी आज़ादी सबसे प्रिय है|

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मनुष्य अपना स्वामी नहीं है, वह परिस्थितियों का दास है, विवश है|
वह कर्ता नहीं है,केवल साधन है|
फिर पुण्य और पाप कैसा?

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