मर्यादा में रहने से अगर स्त्री का सम्मान है तो,
स्त्री का सम्मान करना ही पुरुष की मर्यादा है......-
|| श्लोक 9 ||
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः । त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से (सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्दन परमात्मा अज, अविनाशी और सर्वभूतों के परम गति तथा परम आश्रय हैं, वे केवल धर्म को स्थापन करने और संसार का उद्धार करने के लिए ही अपनी योगमाया से सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं। इसलिए परमेश्वर के समान सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है, ऐसा समझकर जो पुरुष परमेश्वर का अनन्य प्रेम से निरन्तर चिन्तन करता हुआ आसक्तिरहित संसार में बर्तता है, वही उनको तत्व से जानता है।) जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है॥-
प्रियतम हो लेना गुस्सा जब मन हो, सो लेना जब मन हो
दे दूँगा कंधा मैं अपना
कर लेना जो गलती करनी, कर लूंगा आँख अंधा अपना,
रो लेना जब मन हो , दे दूँगा मैं आँसू अपना,
हाँ..! हो जाये जब सब तो दे दूँगा सर नेम अपना,
उससे भी न हो पाए तो जाहिर करना अपनी इच्छा,
प्रिय मैं आपकी खातिर दे दूँगा अग्निपरीक्षा.....-
मोहब्बत की नमाज़ों में इमामत एक को सौंपो,
इसे तकने, उसे तकने से नियत टूट जाती है....-
कभी उम्मीदें उधड़ जाए तो मेरे पास ले आना,
मैं "हौसलों का दर्जी" हूं मुफ़्त में रफु कर दूंगा.....-
"हर नजर में मुमकिन नहीं है, बेगुनाह रहना..!
चलो....
कोशिश करते हैं कि खुद की नजर में "बेदाग" रहें.....-
इस सफर में कसर आना अभी बाकी हैं,
मेरे हुनर का असर आना अभी बाकी है।
जिन्दगी खामोश मगर मदहोश नही है,
मेरे सब्र का शुक्राना अभी बाकी है.....-
मेरा साहस, मेरी इज्जत, मेरा सम्मान है पिता,
मेरी ताकत, मेरी पूंजी, मेरी पहचान है पिता.....-