"एक पन्ना सुकून का "
मन करता है
चली जाऊँ
किसी किताब के
उस पुराने पन्ने में,
जहाँ चाय की
हल्की महक बसी हो,
कागज़ थोड़ा पीला हो,
और एक मुस्कुराता किरदार
अपनी बातों से
दुनिया की सारी सख़्ती
धीरे-धीरे घोल दे
जैसे चीनी,
किसी कड़वी चाय में ।
जहाँ कोई सवाल न पूछे,
बस कहे , बैठो
थक गई हो ना?
और मैं
बिना कुछ कहे,
उस पन्ने में छुप जाऊँ।-
I like writing and expressing my thoughts & emotions through words....
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हम होंगे कामयाब इक दिन हमारा भी जहां होगा
इस टूटे दिल के वीराने में इक नया गुलिस्तां होगा
क़फ़स में क़ैद परिंदों को मेरा ये पैग़ाम देना
उम्मीद रखते रहें , एक दिन खुला आसमाँ होगा
राह-ए-ग़म कितनी ही तंग क्यों न हो सुन लो
फिर भी यक़ीं रहे कि कोई न कोई रास्ता होगा
शब का अंधेरा चाहे कितना लम्बा ही क्यूँ न हो
सहर की दस्तक का भी अपना हीं मज़ा होगा
टूट गए पर तो क्या, इन्ही परों से उड़ानें निकलेंगी
यकीं रख, इस सफ़र का इक खूबसूरत समां होगा
सुना है गिरते हुए पत्तों ने भी मौसम को ये कहा है
पतझड़ के बाद फिर से गुलों का सिलसिला होगा-
पतझड़ के आने से
सूख गई थीं जो टहनियाँ शजर की,
बिछड़ गए थे जो पत्ते शाख़ से,
मुरझा गए थे फूल,
बेरंग हो गया था सारा गुलिस्तां।
मगर देखो
बसंत दस्तक दे चुका है यहां,
नई कोंपलें फूटने लगीं जड़ों से,
फूल फिर से मुस्कराने लगे हवाओं में,
रंग लौट आए वीरान गुलिस्तां में।
और जब कभी खो जाए धैर्य,
तो याद रखना
हर पतझड़ के बाद
इक नया मौसम उगता है। 🌿🌸-
तेरे नक़्श से भरे हैं लम्हें, मगर तू अब पास नहीं
खैर छोड़ो जाओ, मगर तुमसे अब कोई आस नहीं
आती तो है मेरे ज़हन में ख़्याल तेरे अब भी अक्सर
तेरा आना मेरे दिल में मगर मुझको अब रास नहीं
तितली सी उड़ती थी जो चाहत तेरे दामन के करीब
अब वो परवाज़ भी दिल को देती कोई एहसास नहीं
लिख दिया है नाम तेरा अब भी अपनी दुआओं में
पर तुझे पाने की अब दिल में कोई प्यास नहीं
बिछड़े तो ऐसा लगा के रूह का हिस्सा ही टूट गया
मगर अब टूटने का दिल में कहीं कोई आभास नहीं-
मैं जिसको भूल बैठी थी वो फिर से याद आया था
ग़मों की शब में इक चेहरा मिरे ख्वाबों में आया था
वो अज़ीज़-तर था मिरा, मिरी दस्तरस से बाहिर था
इंतज़ार में उसके मैंने इक चराग़-ए-उम्मीद जलाया था
शिकायत हुई हवा से फिर क्यों चराग़ों को बुझाया था
वही तो इक रौशनी थी मेरी वही मिरा सरमाया था
वही तनहा चराग़ जो रफ़ीक़-ए-इंतज़ार था मिरा
शब-ए-तारीकी में वो मिरा मानिंद-ए-हमसाया था
अब जो ना रही लौ चराग़ की तो मिरे हौसले टूट गए
ना अब कोई आयेगा रूह, ना पहले कोई आया था-
हम कहाँ उनके क़द के थे, ये इल्म तो था मगर,
ख़ता ये थी कि चाह लिया, बेख़ुदी में उन्हें।-