मेरी चीखें जैसे अनसुनी सी हैं,
और उसकी आवाज़ पे मेरा हक़्क़ नहीं।।
उसे सुनने की चाहत न थी,
और मुझे सुनने देता नहीं।।
ये रिश्ते मरते दम जीने के वादे थे या,
मरते मरते जीने के भ्रम तो नहीं।।
मैं सोचता रहा मेरा सच्च कह दू और,
अब वजह देख रहा हूँ तो जैसे उसने अपना सच्च कभी रखा ही नहीं।।
मैं जीता रहा सच्चाई से हरदम,
वो फरेब से था, कभी पूरा नहीं।।
मुझे लगा मैं इंकार कर दु झूठ से,
वो झूठ बनकर रहने कब लगा उसने कभी कहा नहीं।।
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