रुद्र प्रकाश मिश्र   (रुद्र)
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लेखक हूँ, खाने के लिए मांगता हूं और जीने के लिए लिखता हूँ
Joined 10 August 2017


लेखक हूँ, खाने के लिए मांगता हूं और जीने के लिए लिखता हूँ
Joined 10 August 2017

हम बैठ कर चांदनी रात में गुफ्तगूं करे
तारे हो महफ़िल में हमारी और हमकों सुनें ।

महफूज़ तु रहे बाहों में मेरी
हवाएं हो जो हमारी पहरेदारी करें ।

रात बनकर तेरी काला माथे का टीका
बलाओं से तु बुरी बस दूर ही रहे ।

तेरे श्रृंगार में पूरी प्रकृति लुट जाए
लगें तु ऐसे जैसे हसीं शाम रहे ।

तेरे आईने को रहे दरिया मौजूद हर वक़्त
तु संवरे तो जैसे कोई दुल्हन लगे ।

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भर आती है आंख मेरी ये बात सोच के
तुमसे मिलने को रखा था वो रात रोक के

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मुमकिन है कि ख्यालों तक में तेरे साथ रहता हूँगा मैं
ऐसी उम्मीद रखकर ही आज कल नींद आती है मुझको।

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मैंने बनाया इंतज़ार को घर और उसमें रहने लगा
यहाँ देखा कि सब कुछ ठहरा ठहरा सा रहता है

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है जो बदस्तूर दुनियां में वो बस तेरी आँखें है
हमनें जो कुछ भी लिखा वो बस तेरी आँखें है
चराग़ जलते रहे और हम उन्हें देखते रहे
रात की जो बातें हैं वो बस तेरी आँखें हैं

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ये जो ख़ाब आंखों में क़ैद हैं , ये हैं परिंदों से कहीं
ये भी उड़ ही जाएंगे भोर होते ही कहीं

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ये रुतबा ,ये रौशनी और दिखावे की बातें
अंधेरे में बदलती मुखौटों की बातें
मैं क्या हूँ या नही भी इसकी भी बातें
शोर में होती सन्नाटों की बातें
नासूर से ज़ख्म में दर्द की बातें
मेरे सांस की हवाओं में बातें
ख़ाब में बहती दरिया की बातें
उसमें, गोते लगाते ज़िन्दगी की बातें
तुम्हारी और मेरी चांद रातों की बातें
मुझे पूरी करनी जो ये सब हैं बातें

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मैंने देखा है "रात" को निगरानी तुम्हारी करते हुए
देखा है मैंने "शाम" को श्रृंगार तुम्हारा करते हुए
तुम हो जो खूबसूरत या प्रकृति की मूरत हो
मैंने देखा है "भोर" में तुमको दीपक सा जलते हुए

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तेरे आने पर आती है ज़िन्दगी मुझमें
मैं मौत में रहकर भी देखो सांस लेता हूँ

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तुम्हारी नज़र में क्या है ज़िन्दगी की क़ीमत
मेरी नज़र से देखो तो तुम्हारी नज़र ही ज़िन्दगी है

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