✍️रुचिका बंसल   (@रुचिका बंसल)
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Joined 8 August 2020


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बातों में सबसे
ज्यादा कही जाती हूं मै,





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ज़िंदगी के पल हर पल घट रहे हैं,
तुम कुछ भूल तो नहीं रहे?

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सुविधाओं की जंजीर में
कितने आजाद हो गए हम,
इंटरनेट की प्राचीर में
कितने डिजिटल हो गए हम,
इतिहास की जागीर में
कितने आधुनिक हो गए हम,
फ़ुर्सतों की तकदीर में
कितने व्यस्त हो गए हम,
होड़ की शमशीर में
कितने पिछड़ गए हैं हम,
हाथों की लकीर में
कितने उलझ गए हैं हम,
नक़ल की तस्वीर में
कितने विफल हो गए हम,
पराई पीर में
कितने उदासीन हो गए हम,
निज स्वार्थ की समीर में
कितने बदल गए हैं हम,
कितने बदल गए हैं हम!

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यकीन, परख से
जन्म लेता हैं..
परख, अनुभवों से
आती हैं...
अनुभव,
परिपक्वता की देन हैं...
परिपक्वता,
उम्र से कम
संघर्षों से अधिक होती हैं..
संघर्ष, सबक और सब्र
लेकर आते हैं..

एक लंबा सफर तय करके यकीन
आखिरकार प्रेम को जन्म देता हैं.......

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अच्छे व बुरे समय की साझेदारी....

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कभी लगता हैं
तुम हो मेरा ही अक्स..
तो कभी लगती तुम
कोई अजीज शख़्स..
कभी
भिगो कर मुझे
तुम डूब जाती हो
मुझमें..
तो कभी
रच कर तुम्हें
रंग भर जाते हैं
मुझमें..
तुम्हें पूरा करके भी
कुछ शेष रह जाता हैं
मुझमें..
तुम तो एक साधारण सी
कविता हो
फिर क्यों असाधारण सा प्रेम
छोड़ जाती हो
मुझमें....

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कभी घटना..
कभी बढ़ना..
कभी पूर्ण..
कभी शून्य..

तुम में हैं,
परिवर्तन का गणित..

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श्रेष्ठ हर कर्म हैं, ध्यान में..

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प्रिय उम्मीद,
जब तुम पिछली बार मेरे मन मस्तिष्क में आई थी, तब मै अपनी कल्पनाओं,अपने स्वप्नों को उड़ान देने से लेकर उन्हें सच करने में सक्षम हो पाई थी,इससे पहले भी तुमने हमेशा मुझे गिरने से बचाया हैं,या यूं कहूं कि, होंसला छूटने से ठीक पहले तुम थाम लेती हो मुझे!
आज भी मुझे तुम्हारी जरूरत महसूस हो रही हैं,आशा करती हूं कि तुम जल्द ही मिलने आओगी,इस बार थोड़ा रुक कर जाना...
सादर प्रेम
तुम्हारी सखी
रुचिका बंसल

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धर्म व्यक्तिगत होता हैं,
किन्तु उसका प्रभाव सामूहिक होता हैं।

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