आज चाँद तुम्हारे जैसा निकला
दूध की तरह सफेद,
गरम मौसम में थोड़ी सी ठंड ढोए हुए,
हज़ारों तारो के बीच
अकेला, बहुत खूबसूरत निकला।
आज चाँद तुम्हारे जैसा निकला।
कुछ धुंधला-सा, सूरज की लपटों में लिपटा
थोड़ा पास, थोड़ा दूर,
थोड़ा धुला, बिना नज़र के टीके के
खुले नीले आसमां मे निकला,
आज चाँद तुम्हारे जैसा निकला।-
तुम्हें क्यों लगता है
भूल जाऊँगी तुम्हें,
पहाड़ भी कभी नदी को भूलते हैं भला,
या नदी भूल जाती है
अपने उद्गम स्थान को
सागर से मिलने के बाद।
वो पहाड़ को साथ लेकर चलती है
अपने हृदय पटल पर
ना मिटाई जा सकने वाली छवि की तरह।
ऐसा ही प्रेम है मेरा तुमसे,
ना मिट सकने वाला कभी,
तुम रहोगे सदा इस दिल में,
कंचनजंगा की तरह
धुंध से निकलकर आ ही जाओगे सामने
जब यदा-कदा, मैं आऊंगी किनारों पर
मिलने तुमसे।-
इतनी कुंठा, इतना अहंकार
कहाँ से लाते हो?
मैं बेचारा हूँ,
इस दंभ के पीछे क्यों छुप जाते हो?
एक पल में प्रेम और दूसरे पल
प्रेम पर प्रश्नचिन्ह क्यों लगते हो?
झूठी नाराज़गी की ओठ मे,
अपने भय को क्यों सहलाते हो?
लंगडा है शायद तुम्हारा विश्वास
ठोकर लगी नहीं कि गिर पड़ता है,
या मोल ही इतना कम है तुम्हारे मन का
थोक के दाम बिक जाता है।-
चाँद बहुत खूबसूरत था उस दिन
सोचा तुम्हें भेज दूँ।
तोड़के नहीं,
वहीं, जहां वो है
वैसा ही, जैसा वो है
पर जो पहुँचा तुम्हारे पास
तो बोल ही नहीं पाया
वही जो कहने था आया।-
सब चलता रहेगा..
रुकता कौन है यहां,
कब, किसके लिए
वक़्त के कंधों पर
सर रख दो, चल रहा है,
सब चलता रहेगा।
तुम भी चलो
मैं भी चलूं,
ठंडी रातों में
गरम यादे तकिये
पर रख कर,
फिर सुबह होगी
तो सब नया लगेगा।
रुकता कौन है यहां,
कब, किसके लिए,
वक़्त के कंधों पर
सर रख दो, चल रहा है,
सब चलता रहेगा।-
कैसे भूलूँगी मै?
ये जंगल, ये नदी, ये हवा
ये शाम, ये रात, ये दिन
सर्दी, गर्मी, बरसात
मेरा यहां होना
और फिर ना होना।
कैसे एक सुबह उठूंगी
और पाऊंगी कंक्रीट की भीड़
वहां जहां कभी कंचनजंगा हुआ करता था।
अधपका सूरज वक़्त से पहले ही डूबता हुआ
सफेद कपड़े में चढ़े रंग की तरह
अपनी निशानी पीछे छोड़ जाया करता था।
कैसे रोक पाऊँगी बहते समय को?
कैसे पार कर पाऊँगी
तुम्हारे और मेरे बीच पसरे बहुत-बहुत
सालो के अंतर को?
(शेष कविता नीचे कैप्शन में।)-
और...
क्या सुनाये? क्या पुछे?
क्या जवाब दे?
इस 'और' का।
दिन गुज़र गया
रात आ गयी
कल फिर सुबह होगी।
और...
कल फिर पुछिएगा,
शायद कोई कहानी
मिल जाए,
जो मै कह पाऊं
और आप सुन पाए।-
क्या बस कहना काफी होगा?
क्या शब्द बना पाएंगे अपना रास्ता,
इस दिल से उस दिल तक?
क्या समा पाएंगे ये अपने अंदर
इस दिल का भूचाल,
उबलता हुआ एहसास,
झलकता हुआ आश्चर्य,
रोम-रोम में समाता विस्मय,
आंखों के आगे बदलता दृश्य
और इन सबके बीच सिकुड़े बैठे
मैं और तुम।— % &-
आखिर आ ही जाते हो
अचानक ही, किसी कोने में रखी याद की तरह,
धुंध से निकले पहाड़ की तरह,
रेगिस्तान में नीम की तरह,
बहते पानी के किनारों पे बिछी चट्टानों की तरह,
लंबे रास्तों मे खूबसूरत दृश्य की तरह,
उमस भरे मौसम में आईस-क्रीम ट्रॉली की तरह,
शब्दों की कतार में पूर्णविराम की तरह।
और एक बार जो आते हो
जुबां, दिल, दिमाग मे,
तो कुछ दिन रुककर जाते हो,
मेहमान की तरह मेरे वक़्त का लुत्फ उठाते हो।
अगर-मगर के जाल में फेंक जाते हो
पुरानी यादों की बारिश मे भीगा जाते हो
सवालों का एक टूटा पुल छोड़ जाते हो।
जब आते हो तो ऐसे आते हो
जैसे जाना ही नियति हो,
जैसे रुकना तुम्हे आता ही न हो,
जैसे सब खत्म-सा हो।— % &-