Ruchi Gautam Pant   (“रुचि” ❤️❤️)
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दिल से लेखिका
Joined 31 May 2020


दिल से लेखिका
Joined 31 May 2020
28 APR AT 14:46

सोचती हूँ अक़्सर कभी राह चलते यूँ ही तू देखने को मिल जाये,
एक शहर में तो हम रहते नहीं,
शायद कभी एयरपोर्ट, बस या रेलवे स्टेशन पर ही तेरी झलक मिल जाये,
बहुत ज़्यादा नहीं है जो माँगा हैं मैंने,
पर मिल जाये तो शायद कुछ बदल जाये।

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27 APR AT 10:07

सिंदूर तेरे नाम का,
चेहरे पे चमक तेरे नाम की,
कंगन तेरे नाम का
ये चूड़ी भी तेरे नाम की,
ना भी हो तो कैसे?
लिखी थी ईश्वर को मैंने,
अर्ज़ी तेरे नाम की।

अर्घ्य तेरे नाम का,
पूजा तेरे नाम की,
दिन रात मन से निकलती,
हर दुआ तेरे नाम की,
ना भी हो तो कैसे?
कुछ तो उपरवाले की थी,
मर्ज़ी तेरे मेरे साथ की।

रूबाब तेरे नाम का,
गुज़ारिश भी तेरे नाम की,
ग़ुरूर भी तू मेरा,
हर हया भी तेरे नाम की,
ना भी हो तो कैसे?
तूने चाहा होगा मुझ सा कोई,
मैंने भी बाँटी होंगी शायद कुछ मोती तेरे नाम की।

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22 APR AT 9:10

सोचती हूँ कभी-कभी,
काश सब कुछ,
कुछ ऐसे ठीक हो जाता,
जैसे जागती हूँ नींद से,
कोई बुरा सपना देख कर।

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3 APR AT 12:38

माँ और बेटियाँ

सिर्फ़ बेटियाँ ही माँ से ज़्यादा जुड़ी नहीं होती,
माँ भी बेटियों से बहुत जुड़ी होती है,
और जहां ये समीकरण होता है,
वहाँ बेटियाँ आज़ाद पंछी की तरह उड़ जाने का हौंसला रखती हैं।

सिर्फ़ बेटियाँ ही माँ को खोजती नहीं फिरती,
माँ भी कई बार बेटियों को खोजती है,
और जब बेटी मिल जाये,
तो उसमें माँ को दिखता है अपना गुज़र हुआ बचपन।

सिर्फ़ बेटियाँ ही माँ का आलिंगन नहीं चाहती,
माँ भी चाहती है अपनी बेटियों का आलिंगन,
और जब वो मिलता है,
तो माँ फिर से जी उठती है।
और जाग जाती है उनमें कुछ कर गुज़रने की आशा।

सिर्फ़ बेटियाँ ही माँ से जुदा नहीं होतीं,
एक दिन माँ भी बहुत दूर चली जाती है,
और बेटी की ज़िंदगी में अजीब सी सुनसानी छा जाती है,
जो ख़त्म तो नहीं होती। हाँ थोड़ी भर ज़रूर जाती है,
जब उस बेटी की ख़ुद की बेटी हो जाती है।

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5 MAR AT 23:53

उसने कुछ यूँ लिखा,
मैं लिख कर बात करता हूँ,
उसने कुछ यूँ लिखा कि मैं लिख कर बात करता हूँ,

तो कहना चाहती थी मैं,
मैं तुम्हें सिर्फ़ देख कर सब समझ लेती हूँ,

समझ लेती हूँ की मन बाँवरा है खोया किस खोज में,
समझ लेती हूँ क्यों ज़्यादातर तुम रहते नहीं मेरे रोज़ में।

समझ जाती हूँ वो हाव भाव जब होते हो उलझन में,
और समझ लेती हूँ जो चलती है उधेड़ बुन तुम्हारे मन में।

समझ लेती हूँ जो ये बाल हैं खुले, आज हैं मन परिंदा बना,
और बांध लेते हो जब वापस चोटी तो मन जैसे लक्ष्य की ओर फिर चल पड़ा।

समझ जाती हूँ जब ढूँढते हो मुझे दो बातों को,
समझ जाती हूँ जब हज़ार बातें करके भी,
मन तुम्हारा ना भर रहा।

क्यूँकि तुम तो लिख कर बात करते हो ना?
और देखो कैसे मैं बस तुम्हें देख कर सब समझ जाती हूँ।

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24 FEB AT 16:44

ख़ुशनुमा बीत रही ज़िंदगी के,
कुछ मेरे क़ब्ज़े में ये पल,
कहीं भी ले जाये ये ज़िंदगी,
संग रहेंगे ये पल,
पल कुछ फ़ुरसत के,
पल कुछ संग तेरी हसरत के,
पल जो हाथों से निकल जाते हैं दूजे ही पल,
पल बांध रखे हैं यूँ ही कुछ हमने,
एक दूजे संग बिताये कुछ पल।

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19 FEB AT 12:18

ज़रूरी है ज़िंदगी में आना पतझड़ का भी,
की सूखी, अनचाही पत्तियों को अलगाव मिल सके,

ज़रूरी है तेज़ हवाओं का यूँ सर्रर्र से बह जाना,
और ले जाये अनचाहा हर एहसास अपने साथ,
ताकि ज़िंदगी को इक नयी फिर आस मिल सके।

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16 FEB AT 22:48

कही किससे माँगू मैं उन सवालों के जवाब?
वो जवाब जो सिर्फ़ तुम्हारे पास हैं।
कहीं जियूँ कैसे फिर वो लम्हे,
जो लम्हे सिर्फ़ तुमसे रास हैं।
कहो अब भी हैं वो यादें तुम संग?
क्या कुछ भूले बिसरे पल अब भी आस पास हैं?
कहो आती है क्या याद मेरी,
लगता है कभी बस एक आवाज़ पर आ जाऊँ?
मुझसे पूछो तो मैं सच कह दूँ,
की अब भी कभी कभी आती तुम्हारे नाम की एक साँस है।

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16 FEB AT 22:19

काश छोड़ आती मैं कुछ अधूरी ख्वाहिशें,
काश कर लेती मैं तुझसे फिर मिलने की साज़िशें,
काश ना पाली होती मैंने ख़ुद अपने दिल से रंजिशें,
काश पूरी कर ली होती मैंने इसकी कुछ नादान फ़रमाइशें।।

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11 FEB AT 19:14

तरसती हैं निगाहें मेरी जिनसे नज़रें मिलाने को,
वो लरज़ते हैं, अब सुना है एक बार ख़ुद से नज़रें मिलाने को।

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