अपने ही अंदर दो किरदार का प्रतिदंव्द देखती हूं एक तेरे साथ जिंदगी भर रहने के सपने संजोए हुए है दूसरा तुम्हें आजाद करके प्यार की परिभाषा बतलाता है क्या सही क्या ग़लत इसमें उलझा मन अपने ही अंदर दो किरदार को देखता है।
प्रेम तुल्य नहीं अतुल्य है ना ही प्रारब्ध का फल हैं जो किसी को ही प्राप्त हो जाये ना प्रचण्ड प्रयास जो प्रिय को क्षति पहुचाये प्रेम तो प्रभु आराधना की प्रक्रिया है जिसके प्रभाव से प्रतिबिम्बित प्रेमी प्रकाशमान है प्रसन्नता का प्रवेशद्वार हैं प्राण का पर्याय हैं प्रेम ही प्रगतिशील जीवन का प्रवेशद्वार हैं प्रेम ही प्रभु है प्रभु ही प्रेम है
वो फिजा़ भी याद हैं वो फिजा़ में बहा इश्क़ भी वो सड़कें भी याद हैं, जहाँ बहका इश्क़ भी वो मुहब्बत का आगाज, तेरी गुनगूनाती आवाज भी वो तेरा मिलना, और मुझ में मिल जाने का प्रयास भी वो सुहाना सफर, जो चलता आज भी...