ऋतुराज पपनै   (©ऋतुराज पपनै "क्षितिज")
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सब मोह माया है,बस भोले की माया है!
जय महाकाल🙏🙏🙏🙏🙏🙏🚩
Joined 1 December 2018


सब मोह माया है,बस भोले की माया है!
जय महाकाल🙏🙏🙏🙏🙏🙏🚩
Joined 1 December 2018
27 APR 2020 AT 14:02

"world Heritage-valley of flowers"
रंग-बिरंगे पुष्प खिले हैं,देवभूमि की माटी में!
कभी तो आओ उत्तराखण्ड,"फूलों की घाटी" में!!
Heaven on the Earth

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27 SEP 2021 AT 22:17

जाने वाले आते हैं
जाने के लिए ही।
हर मोड़ पर साथ होंगे हम
जिंदगी के लिए ही।

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23 AUG 2021 AT 10:16

"विकल मित्रता" के
विकल्प का अस्तित्व क्या?
आज थोड़ी मित्रता
कल‌ से फिर ठगा-ठगा,
दिल की बातें साझा के बदले
सांचों में कईयों ने तोड़ा है।
इश्क़ ही कर लेते‌
ऐ काश किसी '"संग रचना" से।
इन धूमिल शब्दों के ओझल
अहसास से तो अच्छा था।
😔

*विकल= जिसका कोई कल न हो।

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समझ सकोगे कभी,
किसी के तुम भेद ना।
समाज के ही अनुयाई हो
सीखा है बाण भेदना।
हर कोई अभिमन्यु है,
दंभ में कम आंकते हो!
जयद्रथ विचारों से ग्रसित,
कमजोरी को ही भांपते हो।
मेरी खामोशियों का लाभ उठा
कोहराम क्यों करते हो।
सीने में दबाये रहता हूँ सुनामियों को
"संस्कारों के दीप" तले।




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"खून के रिश्ते"

फ़रिश्ते हैं खून के रिश्ते।
जो‌ नए बने उनका अनुमान क्या?
बच्चों की दोस्ती भी नटखट सी
हमउम्र से उम्मीद भी पर इनसे सम्मान क्या?
स्वार्थवश जोड़े गए जो मजबूरन खिसियाने
उन रिश्तों के तह पानियों से रिसते।
जन्म से मिले जो इक दूसरे को बांधते,
जीवन के अंतिम छोर तक प्रेम ही पसीजते।

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22 AUG 2021 AT 12:58

"मन के अदृश धागे"

धागे टूट जाते हैं बंधे जो तन पर।
अमिट है धागे जो मन से मन पर।
मन के धागों से बंधा हुआ मैं।
भाई बहनों में गूंथा हुआ मैं।
अदृश्य धागे हैं सूर्य की कक्षाओं के समान।
प्रेममय हृदय ही कर सके ये भान।
मन: विकारों से ग्रसित प्रेम से नहीं रिंझते।
मानसरोवर के हंस हर किसी को नहीं दिखते।
मन के धागों में बंधे हुए हम।
सूर्य में जैसे बंधे हैं ग्रह कण।

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18 AUG 2021 AT 15:42

भारत माता के आँचल में
विश्व को सारे घर लगता है
कहां गए वो कहने वाले।
भारत में जिन्हें डर लगता है।

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पांवों पर उठने लगो जो।
कभी नहीं चाहेंगे वो लोग,
देखा है जिन्होंने पहले।
तुम्हें लड़खड़ाते हुए।
हर तरफ आग होगी
राख झड़ेगी तुम्हारी लिए
किसी के नकारे सपनों की।
तुम तो सूर्य हो उदय हो जाओ
नभ पर दीप बन कर जगमगाओ।
दीपक जलने से कभी राख नहीं बनती।
ईर्ष्या की आग जलबिंदुओं से भी न थमती।


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अछूते, मंजिलों से अरसे।
अब भी वही पुराने
सफलताओं को पाने को,
निकले हैं घर से।
ऊबड़-खाबड़ दुनिया
तंग सी हैं राहें।
प्रेमपथिक बनकर
पथ तय करते डगर से।
मंजिल कभी सामने
होती है फिर ओझल
फिर से थाम लेते हैं
हाथ दोस्ती का।
सहमते नहीं हैं पथिक हम
असफलताओं के डर से।


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चेहरों पर सिकन से हैं।
फूलों को डर क्यों हैं?
मुरझाए से लगते हैं।
बरगद गगनचुंबी हो रहा है शायद।

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