कुछ मंज़र.... स्याही के अंदर से ....
इस्तकामत -ए- तश्बीह की तबियत कमज़र्फ तज़ुर्बे क्या जाने..
जिसके हर्फ़ - ए- नफ़स में बे- लौस उन्स बसा हो,
उज़्र -ए - रिफाकत की क्या मजाल....
जहाँ हिज्र में भी हाफ़िज़ा -ए- रग़बत रमा हो I
Arti..✍🏻-
मनुष्य और प्रकृति अभिन्न ..✨
फूल और कलियों की खुशबू अब कहाँ, जहाँ फ़िज़ा में मिलवट
हो महक की ,
तितलियों की रंगत भी फीकी हुई, जो ख़ुदगर्जी है बेरंग आसमान की,
नदियाँ भी अब कतराती हैं समंदर में मिलने से, जहाँ समंदर की भी ज़िद हो नदियों को मिटाने की...
जहां शाख- शाख से बने जंगलो को मिलना पड़े ख़ाक- ख़ाक में
जहां मेघो के अब - बन से हवा रुख बदले बात- बात में ||
जहां अनल कहे पवन से, पवन कहे गगन से, गगन कहे धरा से, और धरा कहे वाकिफ हैं हम इंसान की फितरत से...
Arti..✍🏻-
अहल-ए- ताबिर और ज़र्फ -ए-तदबीर में खोया उन्स,
इस मुख्तसर सी फतह को मुकम्मल समझ मुसलसल आरज़ू -ए -ना - सबूर को हम ख्वाबिदा कर गए ....
मुंतजिर सी पहेली गुमनाम हुई और ...
फकत शब -ओ -रोज की तवक्को को लेकर हम शिकस्त से मिल गए !
Arti...-
دل کی تہ میں زکھم چھپے ہیں
قدمو ٹالے سب راستے روکے ہیں۔
خوشیوں کے سائے سر سے اٹھتے ہیں۔
سجدوں میں آنسو سارے جھکے ہیں۔
Arti...✍️
-
कुछ एक सपनों के लिए एक दौर की हकीकत कुर्बान हो जाती है,
सपने जीते या ना जीते मगर बेदार एक उम्र हार जाती है !!
Arti....✍️
-
कभी - कभी ..............
खो न दूँ खुद को इसलिए यूँ ही मिल लेती हूँ खुद से कभी- कभी ,
भूल न जाऊं दुनिया की रिवायतों में खुद को सो याद कर लेती हूँ खुद को कभी -कभी |
इस दुनिया से परे अपनी दुनिया के कुछ ख्वाब बुन्न लेती हूँ कभी - कभी ...
ये बुने हुए ख्वाब कही उधड़ न जाए बस ज़ेहन में दफ़न कर लेती हूँ अक्सर ,
क्या और सुकर करूँ खुद का...
कि लिखते ही कलम की स्याही , लफ्ज़ो में अलफ़ाज़ और ज़ेहन के ज़ज़्बात सब ख़त्म कर देती हूँ अक्सर |
To be continued.......
Arti ✍
-
मत जगा दर्द को यूँ फिर से ,ऐ ज़िंदगी ! अर्सों बाद तो सुकून से अब सोया है |
गमों से राहत और कुछ पल की खुशियां ढूंढते- ढूंढते मैंने....... खुद को कहाँ और जाने क्या- क्या खोया है !!
@rti
-
الفاس خاموشی رہ سکتا ہے لیکن خاموش نہیں!
زمان بدل گیا ہے اب کسی پر اعتماد نہیں۔
Arti
-
अक्सर लोग सवालों में सच पूछते है ,
पर जवाब में सच सुनना नहीं चाहते !!
Arti..✍🏻-
लफ़्ज़ों की गर्दिश में गूंजती मुसर्रत -ए-खला इत्तिला करतीं हैं ,
वीरान कहाँ ये जेहन -ओ- जहाँ......
क्या खूब ज़र्फ़ - ऐ- अज़लात की मक़बूल बेकस महफ़िलें सजीं हैं !!
-Arti🖋
-