sabke girne ka mosam aata hai dada,,,, yakeen na ho to patton se pucho.
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कुछ एक पन्नों की किताब है,
वैसी ही हू वा हू जैसे कोई शख्स या शख्सियत अपनी जुबान के ईस्तेमाल से कह रहा है,
हू वा हू जैसे लिखा गया है डायरियों में एक-एक शब्द रातों को दिनकर करते हुए, जागते हुए किसी वजह से या शायद बेवजह...
अपने लिये या फिर दुनियाँ के लिए, जिसके एक-एक हर्फ पर पीएचडी लिखी जा सकती हैं जिसकी एक-एक कलम से लाख सीखा जा सकता है, जीतने का हुनर और शायद जीने का भी और बदला जा सकता है घनघोर अंधेरे को सुर्ख उजालों में....-
पढ़िए! क्योंकि पढ़ने से सीखने तक के सफर का नाम ही शिक्षा है शायद जीवन भी है!
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जीत जाने में एक मसला तो हमेशा रहेगा .....
जीत का तबका हमेशा तुम्हारा थोड़ी रहेगा-
तुम्हे लगता है, तुम्हे ख़बर है .....
तुम्हे ख़बर नहीं है
मैंने राह बदनामी ही चुनी है
मुझे बदनामीयों का डर नहीं है-
नज़रें मिलानी भी पड़ती है ...
चुराने भर से काम नहीं चलता
जब अकेले बैठते है तो
खुद से ,
सवाल करने होते हैं
ज़वाब देना होता है-
जब तुम्हें पता चलेगा मसले क्या थे.....
बहुत देर हो चुकी होगी
वक़्त गुजर चुका होगा
मसले सिमट चुके होंगे-
जीना था अपने लिए और के लिए जीते रहे....
हमारे लिए तो सब अपने थे
हम पराये सबके लिए होते रहे-