बुरे दिनों का संगी कोई नहीं
ना घर, ना उसमें रहने वाले
ना प्रेम, ना उसे करने वाले
साथी हैं तो चुनिंदा निर्जीव चीजें
जिनका सजीव ना होना ही बेहतर है,
जैसे सिरहाने लगा तकिया
जो आंसुओं को पी जाता है,
जैसे कमरे में रखा कोरा-घड़ा
जो रुआंसे गले को भीगो देता है
जैसे बंद किवाड़ पर बना रोशनदान
जो दिन-रात से वाकिफ करा देता है,
जैसे खिड़की से अंदर आती मौसमी हवा
जो सर्दी-गर्मी का अहसास कराती है
जैसे कमरे की छत पर लटका पंखा
जो तेज दौड़कर भी मेरे ही साथ है,
जैसे दीवार पर लगा एक आईना
जो किसी मुझ सरीखे से मिला देता है
इन्हीं के इर्द-गिर्द कट जाता है बुरा दौर
बुरा इसलिए, क्योंकि सजीव चीजें करीब नहीं
-