जहां जो रक्खा उसे वहीं छोड़ आए
मानो शहर भर से नाता जोड़ आए
कुछ सलाखें थीं दरों-दीवार पर
चुभने से पहले मुहाने पर मोड़ आए
उसने तो हिफाजत से संभाली दुश्मनी हमारी
एक रोज हमीं ताला-तिजोरी तोड़ आए
इसे जादू कहें, करिश्मा कहें या रहमत
इश्क करने वाले मोम से पत्थर तोड़ आए-
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जहां जो रक्खा उसे वहीं छोड़ आए
मानो शहर भर से नाता जोड़ आए
कुछ सलाखें थीं दरों-दीवार पर
चुभने से पहले मुहाने पर मोड़ आए
उसने हिफाजत से संभाली दुश्मनी हमारी
एक रोज हमीं ताला-तिजोरी तोड़ आए
इसे जादू कहें, करिश्मा कहें या रहमत
इश्क करने वाले मोम से पत्थर तोड़ आए-
बुरे दिनों का संगी कोई नहीं
ना घर, ना उसमें रहने वाले
ना प्रेम, ना उसे करने वाले
साथी हैं तो चुनिंदा निर्जीव चीजें
जिनका सजीव ना होना ही बेहतर है,
जैसे सिरहाने लगा तकिया
जो आंसुओं को पी जाता है,
जैसे कमरे में रखा कोरा-घड़ा
जो रुआंसे गले को भीगो देता है
जैसे बंद किवाड़ पर बना रोशनदान
जो दिन-रात से वाकिफ करा देता है,
जैसे खिड़की से अंदर आती मौसमी हवा
जो सर्दी-गर्मी का अहसास कराती है
जैसे कमरे की छत पर लटका पंखा
जो तेज दौड़कर भी मेरे ही साथ है,
जैसे दीवार पर लगा एक आईना
जो किसी मुझ सरीखे से मिला देता है
इन्हीं के इर्द-गिर्द कट जाता है बुरा दौर
बुरा इसलिए, क्योंकि सजीव चीजें करीब नहीं
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घर आ गया, उतरना है
ये कहकर जाने लगा वो
मानो सफर खत्म होने को आया है
न वो रुक रहा था, न मैं रोक पा रहा था
हम दोनों वाकिफ थे दुनिया के कायदों से
कायदे जो इस वक्त घर लौटने की कह रहे थे
खूब दुनिया देखी थी हमने मिलकर
सुबह, दुपहरी, शाम बस देखते रहे
जब शाम ढलने को आती तो घर याद आता
घर जहां रात के पहर में रहना जरूरी है
मुझे मलाल है, मैं उसका घर नहीं हो पाया
मलाल है कि मैं उसकी रातों का संगतकार नहीं
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युद्ध के पूर्व की तस्वीरें उतनी ही सुंदर होती हैं, जितनी युद्ध के उपरांत कि तस्वीरें भयानक होती है।
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युद्ध के पूर्व की तस्वीरें उतनी ही सुंदर होती हैं, जितनी युद्ध के उपरांत कि तस्वीरें भयानक होती है।
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कैसे बतलाऊं तुम मेरे लिए क्या हो
ऐ मातृभाषा शायद तुम दहलीज हो
घर का एक पुरातन स्थायी अंग
जिसने आती-जाती पीढ़ी को देखा है,
कुछ उठते गिरते लोगों को परखा है
वो जो बीता हुआ अंग है,
निरंतर जारी अंग है।-
कैसे बतलाऊं तुम मेरे लिए क्या हो
ऐ मातृभाषा शायद तुम पीहर हो
उस औरत का जो बरसों ससुराल में
रहकर भी तुम्हे हर रोज याद करती है,
और मायरा देखकर घूंघट में सिसकती है
वो जो स्मृति का मायरा है,
अपनत्व का मायरा है।-
कैसे बतलाऊं तुम मेरे लिए क्या हो
ऐ मातृभाषा शायद तुम दर्पण हो
उस लड़की का जो तुममें झांककर
यौवन में नित खुद की चोटी बनाती है,
बुढापे में विरासत पोतियों को सौंप देती है
वो जो परखों कि चोटी है,
आगंतुकों की चोटी है।-
कैसे बतलाऊं तुम मेरे लिए क्या हो
ऐ मातृभाषा शायद तुम बैठक हो,
उस बूढ़े की जो गांव के चौक से
थका-हारा लौट आता है तुम्हारे पास,
लिए सुकून और आराम की नींद की आस
वो जो ठहराव की नींद है,
मौत सी नींद है।-