निर्धन की मौत को,
लिखने से कतराती है कलम।
धनेश्वर की मौत को,
अखबारों में सजाती है कलम।
मुस्कुराकर मौत भी,
धनेश्वर से कहती है।
तुझमें और निर्धन में बस,
झलकती है एक समानता।
दूल्हा बनकर तुम दोनों,
छुप जाते हो मेरे आँचल में।
मुँह फेर कर नियति जब
दिखाती है अकड़ ,
मुस्कुराकर दुर्घटना
बुलाती है प्यार से।
विमान भी भिड़ गया,
हॉस्टल की दीवारों से।
खाते हुए चेहरों को,
अरथी पे लिटा दिया।
खिल रहा था जो सपना,
लाल रक्त से सींच गया।
काली साया मुस्कुराकर,
ले गई संग सपनों को।
यादें खिलेंगी आँगन में अब,
माँ –बाप के आंसुओं संग।
निर्धन की मौत को,
लिखने से कतराती है कलम।
@RomySingh ✍️❤️©®-
मैं मुस्कुराता रहा ,
दिल की तन्हाई में।
नज़रे कुछ कहती रहीं,
दिल की गहराई में।
चल पड़ा मै राहों में,
ख़ुद से मुँह फेर के।
राहें गुनगुनाकर ,
करने लगी भ्रमित मुझे ।
होकर सम्मोहित मैं ,
उलझता चला गया।
राहें अपनी बाहों से ,
ढकती रही मुझको ।
कभी नयनों की पलकों से ,
कभी दिल के आँगन में।
आँगन में खिलता एक चेहरा,
हर पल निहारता रहा।
कभी होंठों की लालिमा से,
कभी गालों की लालिमा से।
मुस्कुराकर तन्हाई मुझे,
यौवन की रोशनी दिखाने लगी।
मैं भूलकर तन्हाई को,
यौवन में खोता चला गया।
@RomySingh ✍️❤️©®-
छिन्न भिन्न हुआ था सिंदूर,
पहलगाम के आँगन में।
दर्द बनकर अश्क ,
नयनों से बहे थे।
ठहर कर लम्हा,
ख़ामोश कर गया जीवन को।
खामोशियां बन अंगार,
धधक पड़ी थी सीने में।
लम्हा लेकर नकाब,
बेनकाब कर दिया।
सिंदूर के पहिए पर,
सियासत चल पड़ी है।
रैलियों के जलसे में,
सिंदूर चीख रहा ।
घुलकर धमनियों में,
श्वासों को चला रहा।
वोट के खातिर अब,
सिंदूर चल पड़ा।
बनकर चेहरा सिंदूर,
सियासत को खींच रहा।
सिंदूर भी अब तो,
सौदा बन गया है।
कुर्सी की भूख को,
मिटाने चल पड़ा है।
चुनावी रथ को,
सिंदूर खींचने लगा।
घुलकर धमनियों में,
रैलियां में दहाड़ रहा।
@RomySingh ✍️❤️©®-
ज़र्फ़ के आँगन में,
खामोश रहकर तुम,
मुस्कान संग खिलकर,
खोना नहीं तुम।
गिले की पगडंडी पर,
गुम होकर खामोशी,
दर्द के आँगन में,
बुलाकर बिठाएगी।
धमनियों में रक्त,
होकर गरम,
नयनों में तुम्हारे ,
चिंता को बसाएंगी।
मोहब्बत का काज़ल,
अश्कों के तेज़ से,
गालों की लालिमा में,
दाग को बुलाएगा।
ख़ुद के आँगन में ,
बैठाकर ख़ुद को,
ख़ुद की नज़रों में,
ख़ुद से गिराएगा।
ज़र्फ़ के आँगन में,
खामोश रहकर तुम,
मुस्कान संग खिलकर,
खोना नहीं तुम।
@RomySingh ©®-
Always analyze yourself,
so that you continue to
refine yourself.
@RomySingh ✍️❤️©®-
Upon examining India's
past and present,
I notice that flattery
has been prevalent
since ancient times,
and those adept at it
seem to thrive in modern
India without much effort.
@RomySingh✍️❤️©®-
माँ ❤️❤️
पहनाकर ताज़ मोहब्बत का,
माँ हर दफ़ा मुस्कुराती रही।
लिटाकर रेशम के आँचल में,
उजाले का रंग भरती रही।
दिल के आइने में मेरे ,
जब भी दिखा दर्द का शाया।
माँ का दिल बुलाकर मुझे,
आँचल में लिटाता रहा।
एकाकीपन का समुंदर,
जब भी निगलता है मुझको।
माँ की होंठों की मुस्कान,
तैरना सिखाती हर पल मुझको।
जब भी दर्द अश्कों संग,
दिल के आँगन को भिगोते है।
माँ का लाड़ आँगन में,
इश्क़ के फूल खिलाते है।
पहनाकर ताज़ मोहब्बत का,
माँ हर दफ़ा मुस्कुराती रही।
जब भी मेरा तन्हा दिल,
शिकार होता काली शाया का।
माँ का दिल बनके आइना,
मोहब्बत का उजाला करता है।
माँ के दिल के नयनों को,
आज भी रोमी वैसे ही दिखता।
जब माँ ने पहली दफा,
रोमी के गालों को चूमा था।
पहनाकर ताज़ मोहब्बत का,
माँ हर दफ़ा मुस्कुराती रही।
@RomySingh✍️❤️©®-
Certain literate but
misguided individuals
on social media are
distorting religion to
manipulate India's naive
population.
Yet, they remained eerily
silent on soldiers' sacrifices
and ceasefires,
revealing their
opportunistic nature.
@RomySingh✍️❤️©®-
After the war between the UK and USSR, two institutions were born: the World Bank and the IMF(International Monetary Fund). These institutions were established to assist developing countries affected by the war in creating pathways for development. However, under the guise of assistance, both institutions have enslaved the social, economic, political, and cultural aspects of every country.
In India today, several institutions have become active in the name of literature like teachers(titular), youtubers, hypocritical monks etc. with their primary objective being to spread religious poison and further their own interests.
@RomySingh✍️❤️©®-
सरहद पे खिंची लकीरें,
अपनों को भून रहीं है।
तिरंगे पे सज़ा रंग,
लाल हो गया है।
जाने विदा होकर,
बदन को छोड़ रही है।
हवा में सिंदूर रंग,
माँ को डरा रहा है।
श्वासें हँस कर के,
वतन के लिए चली।
नयनों में अश्क़ लिए,
अपनों से दूर चली।
सरहद पे खिंची लकीरें ,
अपनों को भून रही है।
हवाओं संग धरा,
सिंदूर में बदलकर,
माँ के आँचल को,
छुपाने लगी है।
माँ की फिकर को,
बदलकर सौगात में,
ज़ख्मों संग हँस रहे।
सरहद पे खिंची लकीरें,
अपनों को भून रहीं है।
@RomySingh ✍️❤️-