तुम, मेरी एक अधूरी ख्वाइश हो।
तुम हो वो मुट्ठी से फिसली रेत जो कोई पकड़ न पाया ।
तुम हो वो पत्तों से गिरी बूंद जो कभी सम्भल न पाई ।
तुम हो वो पहली बरसात की खुशबू, जो दूसरी, तीसरी और कई बरसातों में कोई ढूंढ न पाया ।
तुम, मेरी एक अधूरी ख्वाइश हो।
तुम हो उस खूबसूरत झरने का पानी जो बस बहता गया पर कभी ठहर न पाया।
तुम हो उस दीवार पे टंगी पुराने घड़ी ने दिखाया समय जो कभी रुक न पाया।
तुम हो उस आधे पूनम का खूबसूरत सा चांद जो दूर से तो भाया पर कभी किसीने पास न पाया.....
तुम, मेरी एक अधूरी ख्वाइश हो।-
सुबह की पहली ख्वाइश, रात का आखिरी ख़्याल हो तुम
दिल और दिमाग़ में चल रहा तगड़ा बवाल हो तुम
जो ना सुलझेगा मुझसे कभी ऐसा एक कठिन सवाल हो तुम..-
वाट...
जुन्याच त्या वाटेने आज नव्याने मी चालतो आहे,
हरवलेल्या त्या स्वप्नांना आज नव आशेने पाहतो आहे,
ओळखीच्या त्या वाटेवरल्या अनोळखी काट्यांशी झुंजतो आहे!
अडखळलो, थोडा धडपडलो जरी, चालणं मात्र विसरलो नाही,
हरवलेल्या त्या स्वप्नांसाठी पुन्हा एकदा लाही लाही !
लाख प्रलोभने वाटेवरती विचलित कराया सज्ज झाली,
मग अलिप्तपणा तो टिकवाया कसरत मोठी अद्भुत झाली !
जुने सखे ते हरवले कुठे, नव्यांशी चाल जुळतच नाही,
वाट माझी एकट्याची मग सोबत कुणाची कशाला हवी?
तिमिरात जरा अडखळलो तरी,
स्वप्नांच्या पडद्यावर तारांची झळक ती वेगळी, कशाला हवी?
उगवेल पहाट नव्या उमेदीची जोड त्याला कर्तुत्वाची,
निरंतर ती स्वप्न माझी, वाट अडवाया हिंमत कोणाची?
जुन्याच त्या वाटेने आज नव्याने मी चालतो आहे,
अडखळलो,पडलो, धडपडलो तरी उठून पुन्हा उभारी घेतो आहे!
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सालों बाद ज़िम्मेदारी से फुर्सत निकाल शहर छोड़ आज़ कुछ दिन के लिए गांव चला गया वो...
जो छूटा था सालों पहले आज कुछ बदल सा गया वो...
जहां मिट्टी में साईकिल की टायर लेके भागा करता था, वहा अब सीमेंट की रास्ते पे चला वो..
धूप में जिस पीपल के निचे बैठकर सपने बुने थे, आज जब चलते चलते प्यास लगी तो उसी जगह खड़े शॉप से पानी ख़रीदा उसने...
बचपन में जिस बड़े मैदान पे बल्ला लेके दौड़ा था, उसपे अब तरक्की के नाम पे अतिक्रमण देख थम सा गया वो...
कभी जो कुछ उसका अपना था, अब कहीं खो गया वो,
गांव की शहर जैसी तरक्की देख कर थोड़ा मुस्कुरा तो दिया उसने,
पर अंदर से टूटा, अपनी कांपती आवाज़ में बोला की,
"साहब, मत बनाओ हमारे गांव को शहर जैसा
हम सुकून ढूंढने और कहा जाएंगे?"-
अवकाळी पाऊस अन्...
खरा तर तो श्रावणातला, भाद्रपदातच माघारी फिरला
कुणास ठाऊक का पण आज चक्क चैत्रात बरसला!
धरतीची ओढ?
मातीस संग?
कि असाच अवखळ?
कुणास ठाऊक का पण आज तो पुन्हा बरसला!
उन्हं चमचमली,
मातीचा सुगंध दरवळला,
थंड वाऱ्याच्या झोताने शहारा आणला,
कुणास ठाऊक का पण आज तो पुन्हा बरसला!
ऋतुचक्राचा हा पोरखेळ बघुनी
मन कोड्यात, पण चेहरा हसला
कुणास ठाऊक का पण आज तो पुन्हा बरसला!
अवचित त्या संगमाने ऋतु पुन्हा बहरून गेला
अन् वाहत्या पाण्यातच, सृष्टीचे प्रतिबिंब देऊन गेला
तृष्णा भागली,
मने शहारली,
अन् मग हा लागला मागे फिरकायला..
हलकेच बिलगुनी त्याने प्रश्न केला, पुन्हा असाच बरसशील ना?
हळूच हसूनी, निश्चिंत हो चा इशारा केला ,
त्याचा प्रश्न मात्र अनुत्तरितच ठेऊनी कुणास ठाऊक कुठे हरवून गेला!
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कुछ यादें जुड़ी थीं इस जगह से उन्हें फिरसे जीने आया हूं,
कुछ दोस्त गहरे थे इस जगह पे उन्हें फिरसे पुकारता आया हूं!
पता नहीं ढूंढ रहा हूं किसे, मैं वापस पुराने गली में चला आया हूं!-
इस साल ये बारिश भी कुछ यूं खफा हो गई हैं मुझसे ,
कमबख़्त जब भी आती हैं बस बेचैन कर देती हैं।-
मैं तो रातों का मुसाफिर हूं दोस्त,
सुबह से मेरा कोई वास्ता नहीं।
अंधेरे से डरकर अपनी मंज़िल की ओर जिसपे ना चलूं,
ऐसा कोई रास्ता नहीं....।-
कोई इस बारिश से कह देना हमें तंग ना करें
उसकी बाहों में ये मौसम गुजरे तो मुलाकत करेंगे।
बारिश के बाद खिली धूप का किस्सा भी कुछ खास होगा
अगर अदरक वाली चाय की चुस्की के साथ जुड़ा उसका नाम होगा।-
पानी कीं लहरों को इंतजार हैं हवाओं से मांगे लफ्ज़ों का..
अगर मिल गएं तो ख़ूब गज़ल बन जाए।-