जाने किस पर आफत आई है ,
फिर से वो बन संवर के निकली है।
शाम को कुछ खबर ही नही है ,
ये शहर रात क्या गुल खिलाता है।
मर गया जो कोई नजर की चाह में ,
वो जनाजा महखाना गुलज़ार करता हैं।
उलझन है ऐसी सुलझती नही है ,
सच्ची मोहहब्बत इस जमाने में मिलती नही है।
कोई रोक लो चलती शबाब को ,
जाने कितने डूब जायेंगे शराब में।
कोई इत्तालाह कर दो उस दीवाने को ,
ये सफर कुछ दूर पर थम जायेगा।
फ़र्ज़ है नक़ाब हटा दो ,
वो तो आशिक़ है बस इमान जानता हैं।
किस्सा मोहहब्बत के अंजाम का अब काम नही आएगा ,
फिर कोई "रोहित" एक बेवफ़ा से दिल लगा बैठा है।
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