कश्तियाँ भी मिलेंगी,किनारे भी मिलेंगे
आँख जब खोलेगा नज़ारे भी मिलेंगे
रात तो साथ होंगी बस दुआ ही अपनों की
तैर जब आएगा समुन्दर को सहर तक
तोहफ़ा गैर भी देगा ठिकाने भी मिलेंगे ।
दफ़्न करले हर ज़िल्लत को तू सीने में
बहा नाकामी की कालिख़ को खूँ-पसीने में
जब ख़ुद चमकेगा ख़ज़ाने भी मिलेंगे।
फ़ख्र का फ़लसफ़ा क्या है?
बने साख इसकी दवा क्या है?
दिल-ए-नादान को मजबूत कर मजबूर कर
कर गौर ख़ुद पर ख़ुद को थोड़ा ज़ब्त कर
बादशाहते भी मिलेंगी ज़माने भी मिलेंगे।
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ख़ास बात...पहाड़ों सी लगती है
तू पहाड़ों की सर्द हवाओं सी लगती है
मैं तुझको महसूस भर करके सुकूँ पा लेता हूँ।
तू पहाड़ों के झरनों से निकली नदियों सी बहती है
मैं तुझमे हर मौसम गोते लगा लेता हूँ।
तू पहाड़ों की पुरानी बस्ती सी लगती है
मैं तुझमे अकेला ही खुद को बसा लेता हूँ।
तू पहाड़ों पर हरी घास की पत्ती सी लगती है
मैं तेरी ख़ुशबुओं के आगोश में आते ही महक उठता हूँ।
तू पहाड़ों की गहरी ढलानों सी लगती है
मैं तुझमे गिरकर-फिसलकर लौटकर न आता हूँ।
तू पहाड़ों के उलझे टेढ़े-मेढे रास्तों सी लगती है
मैं तुझको बखूबी समझकर भी भटकता जाता हूँ।-
तेरे जगने से ही सब जग जागै।
तेरे जगने से ही भोर हो आवै।
तेरे नयन खुले बिन वार न होवै।
तेरे जगने से ही नभ शोभित होवै।
तेरे जगने से ही सूरज उग आवै।
तेरे जगने से ही जग रोशन हो जावै।
तेरे दर्शन कौ ही पंछी मंडरावै।
तू ही सबके मन कौ भावै।
तेरी बान पड़े जगने की नित प्रातः।
तू फिरसे माला फूल चढ़ावै।
ओ बेपरबाह अब नित ये याद रहै।
तेरे दर्शन को आतुर संसार सकल है।
तू निरख ले प्रकृति को यदि चाहवै।
तेरे जगने से ही वो उत्तम लागै।-
क्या लिख दूँ मैं तुमको भी सवेरा।
जहाँ हर सुबह पर तुम्हारा हक़ हो।
तुम भी तो दुनिया ही हो किसी की।
तुम भी एकल हक़दार हो इस की।
क्या लिख दूँ मैं तुमको भी सूरज।
तुम भी तो दिन जैसे साफ दिखते हो।
तुम भी हो किरणों सी किसी की।
तुम भी एकल हक़दार हो इस की।
क्या लिख दूँ मैं तुमको भी पवन।
छूकर क्षणभर अंतर्मन को कुछ आभास कराती हो।
तुम भी तो हो साँसों में किसी की।
तुम भी एकल हक़दार हो इस की।-