क्यों मौत जिंदगी से आसान लगती है, क्यों हर चौराहे पर मौत की दूकान लगती है . . .
महँगे हुए जा रहे तमाम सामान यहाँ, सबसे सस्ती तो अपनी ही जान लगती है . . .
उम्र भर तलाशते हम वजूद अपना, भीड़ में खो गयी अपनी पहचान लगती है . . .
ख़त्म नहीं होता ख़्वाइशों का सिलसिला, खुशि हमसे अब तलक अनजान लगती है . . .
जिंदुगी बोझ हैं, या हम बोझ जिंदगी पर, आसमाँ लगे जमीं, जमीं आसमान लगती है . . .
नजर आता है हर शख्श भागता हुआ, दो कदम चलते ही अब थकान लगती है . . .
हर दोस्त अब अजनबी सा लगता है, सबके चेहरे पे झूठी मुस्कान लगती हैं . . .
हो गए हैं अकेले इतना इस दुनिया में, महफिलें भी अब हमको वीरान लगती है . . .
मीठी लगने लगी है बातें मौत की, ज़िन्दगी अब मुझे बद जुबान लगती है . . .
क्यों मौत जिंदगी से आसान लगती है . . . !
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